Sunday, December 27, 2009

क्या कहें कितना कठिनतम काल

विश्व क्या है रूप का जंजाल
एक ही मुख दूसरे की ढाल

चौंध मुस्कानों की बांधे है
कस रही मायावी अपना जाल

देखकर चेहरा पढ़ोगे क्या
है त्रिपुण्डों से पुता जब भाल

इधर से घुसना निकल जाना उधर
नए युग की जटिलतम है चाल

सच कसाई का गंडासा है
खींच लेगा एक दिन जो खाल

काट पाया कब कोई कैसे
क्या कहें कितना कठिनतम काल

रोशनी जो कम करे मन की
मत कभी ऐसे अंधेरे पाल

लोग तो झांकी में उलझे हैं
आरती को और थोड़ा टाल

एक मुट्ठी राख अनुभव की
कर गई ‘ज़ाहिद’ को मालामाल

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Wednesday, December 16, 2009

तुझको अपना बना के देख लिया

खुद को यूं आजमा के देख लिया
तुझको अपना बना के देख लिया

रात के बाद दिन भी आता है
जागी रातें बिता के देख लिया

सैकड़ों फूल रोशनी के खिले
किसने चिलमन हटा के देख लिया

उसका दामन न उसके हाथ में है
लाख आंसू बहा के देख लिया

रोते रोते यूं हंस पड़ा ‘ज़ाहिद’
जैसे सब कुछ लुटा के देख लिया

Wednesday, December 2, 2009

इक बोसा दस्तख़त सा

बेरंग किया गया-सा सफ़र मिल गया मुझे
ख़त पर टिकट नहीं था मगर मिल गया मुझे

सरगोशियां खंढर में उड़ रहीं थीं गर्द सी
घर हादसे में ढेर था पर मिल गया मुझे

मां ने कहा था देगा घनी छांव ,मीठे फल
सड़के बनीं तो उखड़ा शज़र मिल गया मुझे

इक सोते के पानी में झुका प्यास बुझाने
कंधें से हटाया हुआ सर मिल गया मुझे

ज़ाहिद जबीं थी कोई रसीदी टिकट न थी
इक बोसा दस्तख़त सा किधर मिल गया मुझे

× कुमार ज़ाहिद , 151109