विश्व क्या है रूप का जंजाल
एक ही मुख दूसरे की ढाल
चौंध मुस्कानों की बांधे है
कस रही मायावी अपना जाल
देखकर चेहरा पढ़ोगे क्या
है त्रिपुण्डों से पुता जब भाल
इधर से घुसना निकल जाना उधर
नए युग की जटिलतम है चाल
सच कसाई का गंडासा है
खींच लेगा एक दिन जो खाल
काट पाया कब कोई कैसे
क्या कहें कितना कठिनतम काल
रोशनी जो कम करे मन की
मत कभी ऐसे अंधेरे पाल
लोग तो झांकी में उलझे हैं
आरती को और थोड़ा टाल
एक मुट्ठी राख अनुभव की
कर गई ‘ज़ाहिद’ को मालामाल
261096
Sunday, December 27, 2009
Wednesday, December 16, 2009
तुझको अपना बना के देख लिया
खुद को यूं आजमा के देख लिया
तुझको अपना बना के देख लिया
रात के बाद दिन भी आता है
जागी रातें बिता के देख लिया
सैकड़ों फूल रोशनी के खिले
किसने चिलमन हटा के देख लिया
उसका दामन न उसके हाथ में है
लाख आंसू बहा के देख लिया
रोते रोते यूं हंस पड़ा ‘ज़ाहिद’
जैसे सब कुछ लुटा के देख लिया
तुझको अपना बना के देख लिया
रात के बाद दिन भी आता है
जागी रातें बिता के देख लिया
सैकड़ों फूल रोशनी के खिले
किसने चिलमन हटा के देख लिया
उसका दामन न उसके हाथ में है
लाख आंसू बहा के देख लिया
रोते रोते यूं हंस पड़ा ‘ज़ाहिद’
जैसे सब कुछ लुटा के देख लिया
Wednesday, December 2, 2009
इक बोसा दस्तख़त सा
बेरंग किया गया-सा सफ़र मिल गया मुझे
ख़त पर टिकट नहीं था मगर मिल गया मुझे
सरगोशियां खंढर में उड़ रहीं थीं गर्द सी
घर हादसे में ढेर था पर मिल गया मुझे
मां ने कहा था देगा घनी छांव ,मीठे फल
सड़के बनीं तो उखड़ा शज़र मिल गया मुझे
इक सोते के पानी में झुका प्यास बुझाने
कंधें से हटाया हुआ सर मिल गया मुझे
ज़ाहिद जबीं थी कोई रसीदी टिकट न थी
इक बोसा दस्तख़त सा किधर मिल गया मुझे
× कुमार ज़ाहिद , 151109
ख़त पर टिकट नहीं था मगर मिल गया मुझे
सरगोशियां खंढर में उड़ रहीं थीं गर्द सी
घर हादसे में ढेर था पर मिल गया मुझे
मां ने कहा था देगा घनी छांव ,मीठे फल
सड़के बनीं तो उखड़ा शज़र मिल गया मुझे
इक सोते के पानी में झुका प्यास बुझाने
कंधें से हटाया हुआ सर मिल गया मुझे
ज़ाहिद जबीं थी कोई रसीदी टिकट न थी
इक बोसा दस्तख़त सा किधर मिल गया मुझे
× कुमार ज़ाहिद , 151109
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