Friday, July 23, 2010

दो ग़ज़ल

बारिश की बारदात।

कुछ भी नया नहीं है, वहीं दिन है, वही रात !
उनसे कहूं तो कैसे कहूं कोई नयी बात !!

पूनम की रात , चांद के माथे पै अंधेरा ,
मुझको लगा अदा से हुई जुल्फों की बरसात ।

बादल की चादरों से झांकती है चांदनी ,
शायद ग़ज़ल है आसमां की गोद में नवजात!

सौ मील की रफ़्तार थी तूफ़ानेजोश में ,
घर को उजाड़कर गई , बारिश की बारदात।

‘ज़ाहिद’ लगे उम्मीद रुदाली है आजकल ,
खुशियों में अश्क बनके टपक पड़ते हैं जज्बात ।

27.6.10

मैं तो दरिया हूं नये ख्वाब का ,बहने आया ।।

‘क्यों है खाली तेरा घर’, कोई ना कहने आया ।
तू गया छोड़ के तो कोई ना रहने आया ।।

मैं कभी इश्क़ की फ़रमाइशें नहीं करता,
मैं तो दरिया हूं नये ख्वाब का , बहने आया ।।

‘हां’ के आईने में परदे हैं सौ बहानों के ,
कोई भी लफ़्ज़ कहां सादगी पहने आया ।?

गुम हुई हंसती खिलखिलाती हुई ताजा़ हवा ,
वक़्त सब शौक के उतारकर गहने आया ।।

मेरे आंसू या पसीने को न पोंछो ‘ज़ाहिद’,
जो भी हिस्से में मिरे आए मैं सहने आया ।।

30.6.10


इसरार: इस बार दो ग़ज़ल एक साथ पढ़ने की तकलीफ़ आपको होगी। पर क्या करूं दोनों का एक साथ देना मेरी मज़बूरी है।
पहली ग़ज़ल तब बनी जब इस तरफ़ तबाही मचाता हुआ तूफान आया और बारिश भी। जानोमाल के नुकसान जो हुए सो हुए ही , तीन दिन तक बिजली भी न आ सकी। एक दिन की बारिश से इतनी ठंडक भी नहीं पड़ी थी कि ऊमस न रहे। इसी बीच मेरे अपने को वापस लौटना भी था । दूसरी ग़ज़ल तब अपने आप हो गई। मुलाहिज़ा फरमाएं और इसला करें।

Thursday, July 1, 2010

काग़ज़ों में शोर है फ़िरदौस का

दोस्तों! भयानक तपती गर्मी का यह गर्म अहसास अगर मुमकिन हो तो बारिश की फुहारों के साथ पढ़ें...



फ़िल्म से यह मेल क्यों खाती नहीं ?
ज़िन्दगी रोती हुई गाती नहीं।

आग के आते थपेड़े हैं सदा
पंखों से ठंडी हवा आती नहीं।

रेंगती है जौंक-सी मरियल नदी
अब किसी अल्हड़ सी बलखाती नहीं।

काग़ज़ों में शोर है फ़िरदौस का
बुर्क़े हैं , सूरत नज़र आती नहीं।

कहते हैं कि उस तरफ़ हैं मंजिलें,
जिस तरफ़ कोई सड़क जाती नहीं।

जख़्म ताक़तभर दबाती है सफ़ा
दुखती रग आहिस्ता सहलाती नहीं।

बेसबब ‘ज़ाहिद’ खड़े हो राह में
अब सबा कलसे इधर लाती नहीं।

16.05.10 फ़िरदौस-स्वर्ग/ सफ़ा- इलाज़/सबा- सुबह की ठंडी हवा