बहुत दिनों जब कुछ ना बोली सीली सी तनहाई।
दबे हुए कुछ सपने खोले उनको धूप दिखाई।।
कुछ खट्टे पल शिकवों की फफूंद खाए थे,
हाथ फेरकर उनका पोंछा फिर कुछ रगड़ लगाई।
कुछ सतरें अब भी आंसू की गंध लिए थीं,
मिटे हुए कुछ हर्फ़ो से यादें रिस आईं।
घायल सा इक ख़त जमीन पर फिसल जा गिरा,
तड़प रही थी उसमें, उसकी, सहमी सी रुसवाई।
टूटे हाथ लगाते जैसे गलत फैसले ,
उन वर्क़ों का क्या होना था ‘ज़ाहिद’ आग लगाई।
01.12.11,