महफ़िल में इस ख़्याल से फिर आ गया हूं मैं,
निस्बत, जुनून, शौक़ भी आए हैं बज़्म में ।।
दोस्तों आदाब!!
हादसा अर्शोज़मीन पर कोई हुआ सा है।
आज चेहरा ए माहताब कुछ बुझा सा है।।
सामने आते ही मुंह फेर वो लेता है क्यों ?
मेरे बारे में उसका ख़्याल कुछ जुदा सा है।।
बोझ अनजाने हैं, सौ किस्म, सौ तरीक़े के,
है सफ़र लंबा बहुत और सर झुका सा है।।
अब्र की तरह सा आ आ के किधर जाता है,
अश्क़ की शक्ल में, कुछ तो है जो छुपा सा है।।
खुद सुराही है वो, प्याला भी है, शराब भी है,
इरादे नेक हैं, मौसम ही कुछ बुरा सा है।।
सिर्फ़ तलवार पर चलती तो खै़र थी लेकिन,
जीस्त के इस तरफ़ खाई, उधर कुआं सा है।।
बहुत दिनों से फ़जा़ओं में थी तपन ‘ज़ाहिद’,
सबा ए दस्तेहिना ने मुझे छुआ सा है।।
18.03.12, रविवार,