डॉ.आर रामकुमार जी ने रंग पंचमी में अपने विशेष अंदाज में गाकर इस रचना को कालजयी कर दिया। मित्रों ने रंग पंचमी के कविसम्मेलन के दूसरे दिन बताया कि सुबह चार बजे के बाद भी उनके गले में यही रचना अटकी रही और दिमाग में कई और दिनों तक इसका असर बरकारार रहा ..बल्कि आज भी है। आपके लिए इस बार ...
संतुलन, संतुलन, संतुलन, संतुलन !!
ज़िन्दगी भर कदम दर कदम संतुलन।।
प्रेम की संकरी गलियों में तिरछे चलो,
द्वेष आगे खड़ा , पीठ पीछे जलन ।।
खिलखिलाना बड़ी साध की बात है,
खीझना-चीखना कुण्ठितों का चलन।।
नव-सृजन की करे जो भी आलोचना,
समझो आहत हुआ उसका चिर-बांझपन।।
रोशनी, धूप, पानी, हवा, आग को,
कै़द कर न सके , नाम उसका कुढ़न।।
हर सदी चाहती है नई हो लहर ,
ताकि क़ायम फ़िज़ा का रहे बांकपन।।
जब घृणा फेंके पत्थर तो झुक जाइये,
अपने संयम का करते रहें आंकलन।।
आत्मविश्वास रखता है, दोनों जगह ,
भीड़ में संतुलन , भाड़ में संतुलन।।
आग यूं तापिये कि न दामन जले,
आंच में संतुलन , सांच में संतुलन ।।
खाओ ऐसा कि पीना मज़ा दे सके ,
खान में संतुलन , पान में संतुलन ।।
बस्ती सोई रही तो लुटीं ज़िदगी ,
नींद में संतुलन , जाग में संतुलन ।।
रंग ही रंग हो कोई कीचड़ न हो,
बाग में संतुलन ,फाग में संतुलन ।।
Monday, April 4, 2011
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