
शाम का वक्त है शाख़ों को हिलाता क्यों है ?
तू थके मांदे परिन्दों को उड़ाता क्यों है ?
वक्त को कौन भला रोक सका है पगले ,
सूइयां घड़ियों की तू पीछे घुमाता क्यों है ?
स्वाद कैसा है पसीने का , ये मज़दूर से पूछ
छांव में बैठ के अंदाज लगाता क्यों है ?
मुझको सीने से लगाने में है तौहीन अगर
दोस्ती के लिए फिर हाथ बढ़ाता क्यों है ?
प्यार के रूप हैं सब , त्याग तपस्या पूजा
इनमें अंतर का कोई प्रश्न उठाता क्यों है ?
मुस्कुराना है मेरे होंठों की आदत में शुमार
इसका मतलब मेरे सुख दुख से लगाता क्यों है ?
देखना चैन से सोना न कभी होगा नसीब
ख़्वाब की तू कोई तस्वीर बनाता क्यों है ?
कृष्ण कुमार ‘नाज़’
बहुत उम्दा !
ReplyDeleteख़ूबसूरत अश’आर से मुरस्सा ग़ज़ल !
किसी एक शेर को चुनना बेहद मुश्किल !
बहुत ख़ूब !
इसे पढ़वाने का बहुत बहुत शुक्रिया
देखना चैन से सोना न कभी होगा नसीब
ReplyDeleteख़्वाब की तू कोई तस्वीर बनाता क्यों है ?
Kya gazab ke ashaar hain sabhi!
स्वाद कैसा है पसीने का , ये मज़दूर से पूछ
ReplyDeleteछांव में बैठ के अंदाज लगाता है क्यों है ?
स्वाद कैसा है पसीने का , ये मज़दूर से पूछ
छांव में बैठ के अंदाज लगाता है क्यों है ?
सुभान अल्लाह...वाकई एक नगीने सी गज़ल ढूंढ लाये हैं आप...एक एक शेर हज़ारों बार पढने लायक है...वाह...
नीरज
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मुस्कुराना है मेरे होंठों की आदत में शुमार
ReplyDeleteइसका मतलब मेरे सुख दुख से लगाता क्यों है ?
bahut khub shukriya
मुस्कुराना है मेरे होंठों की आदत में शुमार
ReplyDeleteइसका मतलब मेरे सुख दुख से लगाता क्यों है...
वाह ज़ाहिद साहब, इस उम्दा कलाम को पेश करने के लिए शुक्रिया.
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ReplyDeleteइस्मत साहिबा , क्षमा जी, नीरज साहब, रंजना जी और शाहिद साहब !
ReplyDeleteनाज़ साहब की ग़ज़ल का यूं लुत्फ़ उठाने का शुक्रिया !!
स्वाद कैसा है पसीने का , ये मज़दूर से पूछ
ReplyDeleteछांव में बैठ के अंदाज लगाता है क्यों है ?
इस शेर की टाइपिंग में ‘है’ ज्यादा और नाजायज़ था , हटा दिया है।
कुमार जाहिद जी,
ReplyDeleteनाज़ साहब की यह ग़ज़ल वास्तव में एक नायाब मोती है जिसका हर शेर काबिले तारीफ़ है !
नाज़ साहब के साथ साथ आप भी शुक्रिया के हकदार हैं इतनी अच्छी ग़ज़ल हम तक पहुंचाने के लिए!
नया साल मुबारक हो !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
शाम का वक्त है शाख़ों को हिलाता क्यों है ?
ReplyDeleteतू थके मांदे परिन्दों को उड़ाता क्यों है ?
सुभान अल्हा बहुत हो खुबसूरत ग़ज़ल है !
कितना समर्पण है हर बात मै !
बहुत उम्दा !
ReplyDeleteशुक्रिया.
वक्त को कौन भला रोक सका है पगले ,
ReplyDeleteसूइयां घड़ियों को तू पीछे घुमाता क्यों है ?
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प्यार के रूप हैं सब , त्याग तपस्या पूजा
इनमें अंतर का कोई प्रश्न उठाता क्यों है ?
...
वाह! सभी एक से बढ़कर एक हैं.
बहुत खूब!
कृष्ण कुमार नाज़ साहब की इस उम्दा ग़ज़ल को पढवाने के लिए आभार.
मुस्कुराना है मेरे होंठों की आदत में शुमार
ReplyDeleteइसका मतलब मेरे सुख दुख से लगाता क्यों है ?
wah. bahut sunder.
मुस्कुराना है मेरे होंठों की आदत में शुमार
ReplyDeleteयह आदत बनी रहे ...शुक्रिया
आदरणीय Kumar Zahid जी
ReplyDelete.आपको नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें ...स्वीकार करें
उत्तम रचनाएँ. आभार...
ReplyDeleteनववर्ष आपके लिये शुभ हो !