Sunday, May 22, 2011

बहुत उर्वर धरा है

हसीं है ज़िन्दगी , उसके लिए रोना भी पड़ता है।
उसी की मर्ज़ी जो चाहे , हमें होना ही पड़ता है।।

जिसे हम चाहें , अपना हो भी जाए ये नहीं सब कुछ ,
अगर कुछ पाना होता है तो कुछ खोना भी पड़ता है।।

बहुत उर्वर धरा है कुछ ना कुछ ऊगा ही करता है ,
मगर कुछ खास लेना हो तो फिर बोना ही पड़ता है।।

करे कोई , भरे कोई , ये क़िस्सा भी पुराना है ,
लगाता दाग़ दिल है , आंख को धोना ही पड़ता है।।

वो सारी रात मेरी बात पर हंसती रही लेकिन ,
सुबह बोली कि पगले रात में सोना भी पड़ता है।।
16.05.11

4 comments:

  1. वो सारी रात मेरी बात पर हंसती रही लेकिन ,
    सुबह बोली कि पगले रात में सोना भी पड़ता है।।


    ज़ाहिद साहब
    पूरी ग़ज़ल प्यारी है … इस शे'र को पढ़ते ही होंटों पर मुस्कुराहट ख़ुद ब ख़ुद आ गई … बहुत ख़ूब !

    हर शे'र के लिए मुबारकबाद !

    एक और मुम्किन क़फ़िया रह गया था :) देखिए-
    नहीं होते किसी भी काम के कुछ लोग 'ज़ाहिद जी'
    मगर ऐसे भी रिश्तों को हमें ढोना ही पड़ता है ॥

    मक़्ता आपकी शान में हमारी भेंट मान कर स्वीकार कीजिएगा हुज़ूर !
    हार्दिक शुभकामनाएं !

    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  2. जिसे हम चाहें , अपना हो भी जाए ये नहीं सब कुछ ,
    अगर कुछ पाना होता है तो कुछ खोना भी पड़ता है।।
    बहुत खूबसूरत शेर है...
    बहुत उर्वर धरा है कुछ ना कुछ ऊगा ही करता है ,
    मगर कुछ खास लेना हो तो फिर बोना ही पड़ता है।।
    ज़िन्दगी की हक़ीक़त बयान करता शेर. मुबारकबाद.

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  3. आप दानों साहबान का बहुत बहुत शुक्रगुजार हूं। आप जर्रानवाज हैं और मुझे आपके कमेंट्स से हमेशा बेहतर कहने का हौसला मिलता है..करम फर्मातें रहें..
    राजेन्द्र जी आपका शेर बहुत सही है...बिलाशक कुछ रिश्ते बहुत भारी होते हैं..पर आप जैसे प्यारे लोगों के बारे में क्या कहें..
    जबां को शौक कहने का है लेकिन क्या करें ज़ाहिद
    मुखातिब दानां के नादां को चुप होना ही पड़ता है।

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  4. बहुत उर्वर धरा है कुछ ना कुछ ऊगा ही करता है ,
    मगर कुछ खास लेना हो तो फिर बोना ही पड़ता है।।

    वाह कमाल लिखते हैं आप..

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