Sunday, December 11, 2011

घायल सा इक ख़त




बहुत दिनों जब कुछ ना बोली सीली सी तनहाई।
दबे हुए कुछ सपने खोले उनको धूप दिखाई।।

कुछ खट्टे पल शिकवों की फफूंद खाए थे,
हाथ फेरकर उनका पोंछा फिर कुछ रगड़ लगाई।

कुछ सतरें अब भी आंसू की गंध लिए थीं,
मिटे हुए कुछ हर्फ़ो से यादें रिस आईं।

घायल सा इक ख़त जमीन पर फिसल जा गिरा,
तड़प रही थी उसमें, उसकी, सहमी सी रुसवाई।

टूटे हाथ लगाते जैसे गलत फैसले ,
उन वर्क़ों का क्या होना था ‘ज़ाहिद’ आग लगाई।

01.12.11,

16 comments:

  1. बहुत दिनों जब कुछ ना बोली सीली सी तनहाई।
    दबे हुए कुछ सपने खोले उनको धूप दिखाई।।
    Bahut,bahut sundar!

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  2. बहुत दिनों जब कुछ ना बोली सीली सी तनहाई।
    दबे हुए कुछ सपने खोले उनको धूप दिखाई।।
    बेहतरीन पंक्तियाँ

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  3. घायल सा इक ख़त जमीन पर फिसल जा गिरा,
    तड़प रही थी उसमें, उसकी, सहमी सी रुसवाई।

    ...बहुत खूब! बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...

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  4. घायल सा इक ख़त जमीन पर फिसल जा गिरा,
    तड़प रही थी उसमें, उसकी, सहमी सी रुसवाई।

    बेहतरीन एहसास...

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  5. क्षमाजी!
    हमेशा की तरह आपकी हौसलाअफ़जाई का
    आभार

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  6. शारदा जी! बहुत बहुत शुक्रिया

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  7. मोनिका जी! बहुत दिनों बाद आपका आना हुआ
    आभार

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  8. बहुत बहुत आभार शर्माजी!

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  9. निगम जी शुक्रिया

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  10. बहुत सुन्दर गज़ल....
    सचमुच एक एक अलफ़ाज़ बेहतरीन...
    मुबारकबाद कबूल करें...

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  11. पुष्प कमल ने कहा-‘‘ कितना सुन्दर लिखते हें आप, कितना सुन्दर सोचते हैं..मैं बहुत ही ज्यादा प्रभावित हूं..’’
    दिनांक 29.12.11

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  12. सुन्दर अभिव्यक्ति,
    नये वर्ष की हृार्दिक शुभकामनायें।

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  13. beautiful. welcome to my blog www.utkarsh-meyar.blogspot.com

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  14. behtareen sir.. aapki gazalen mujhe bar bar is duniya me lautane ko majbur kar deti hain...

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