Wednesday, January 1, 2014

अच्छा लगता है।




लाख विदेशी ठौर ठिकाना, अच्छा लगता है।
पर चेहरा जाना पहजाना, अच्छा लगता है।।

रूठे हुए रुखों पर देखा छुपा हुआ गीलापन,
तभी रुलाकर उन्हें मनाना, अच्छा लगता है।।

महफिल में जब झूठे सच्चे क़िस्से उछल रहे हों,
किसी ख़ास का नाम छुपाना अच्छा लगता है।।

झूठ मूठ जब कोई बोले-‘हम सब समझ रहे हैं-’
ऐसे तुक्कों पर मुस्काना, अच्छा लगता है।।

धूप में सपनों के जब गीले कपड़े सूख रहे हों,
तन्हां छत पर उनका आना, अच्छा लगता है।।

गांव से जिसने क़स्बा जोड़ा, पहुंच शहर तक पाई,
उसी सड़क का मोड़ पुराना, अच्छा लगता है।।

छुपा-छुपी की मीठी खुश्बू अब तक ताज़ादम है,
यादों के बचपन में जाना, अच्छा लगता है।।

बजती हुई तालियों में भी अनुभव बोल रहे हैं,
तभी ताल पर कजरी गाना, अच्छा लगता है।।

बंद हथेली में ‘ज़ाहिद’ की, सदियां छुपी हुई हैं,
आज अकेला यही ख़ज़ाना अच्छा लगता है।।

                          बुधवार, 01.01.2014






3 comments:

  1. छुपा-छुपी की मीठी खुश्बू अब तक ताज़ादम है,
    यादों के बचपन में जाना, अच्छा लगता है।।
    क्या खूब कहा है !
    बहुत अच्छी लगी ग़ज़ल.

    नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ!

    ReplyDelete
  2. कमाल कि ग़ज़ल और इसमें छुपा ये नगीना तो सुहानल्लाह !

    महफिल में जब झूठे सच्चे क़िस्से उछल रहे हों,
    किसी ख़ास का नाम छुपाना अच्छा लगता है।।

    ReplyDelete