Saturday, March 13, 2010

काश मैं बहती हुई धारा से गागर खींचता ।।

कितनी कितनी दूर की नदियों को सागर खींचता ।।
रूप ,धन ,वैभव नहीं ,सबको ही आदर खींचता ।।

लफ़्ज़ मेरे हलक़ से यूं शायरी को खींचते ,
जैसे चारा मछली को पानी के बाहर खींचता ।।

इस कदर है अपने ढंकने की ज़माने को फिक़र ,
नींद में भी ,जो है अपना , वो ही चादर खींचता।।

हर कुएं सूने दिखे यां हर नदी सूखी मिली ,
काश मैं बहती हुई धारा से गागर खींचता ।।

डूबते हैं आंख में अरमान इस उम्मीद से ,
कोई तो ‘ज़ाहिद’ मिरे बाजू़ को आकर खींचता ।।

04.03.10/11.03.10/

20 comments:

  1. लफ़्ज़ मेरे हलक़ से यूं शायरी को खींचते ,
    जैसे चारा मछली को पानी के बाहर खींचता ।।

    इस कदर है अपने ढंकने की ज़माने को फिक़र ,
    नींद में भी ,जो है अपना , वो ही चादर खींचता।।


    wah wah wah behatareen.

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  2. मेरे पास शब्द नहीं हैं!!!!

    बस इतना कहूँगा कि मुझे भाव बहुत सुन्दर लगे

    कहीं दिल में उतर गए

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  3. हर कुएं सूने दिखे यां हर नदी सूखी मिली ,
    काश मैं बहती हुई धारा से गागर खींचता ।
    वाह! वाह!!वाह!!!
    क्या कह दिया इस शेर में !
    गज़ब का ख्याल है!
    ग़ज़ल हर बार की तरह बहुत अच्छी कही है.

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  4. मेरे पास शब्द नहीं हैं!!!!

    बस इतना कहूँगा कि मुझे भाव बहुत सुन्दर लगे

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  5. इस कदर है अपने ढंकने की ज़माने को फिक़र ,
    नींद में भी ,जो है अपना , वो ही चादर खींचता।।

    बहुत ही उम्दा रचना ।

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  6. ऐसे तो हर बात लाजवाब है पर मेरे दिल को सबसे करीब से जिन बातों ने छुआ है वो
    इस कदर है अपने ढंकने की ज़माने को फिक़र ,
    नींद में भी ,जो है अपना , वो ही चादर खींचता।।
    ये ही है आभार

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  7. हर कुएं सूने दिखे यां हर नदी सूखी मिली ,
    काश मैं बहती हुई धारा से गागर खींचता.....
    कुमार ज़ाहिद साहब,
    कितना गहरा शेर है....वाह
    ग़ज़ल के सभी शेर अच्छे लगे..

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  8. लफ़्ज़ मेरे हलक़ से यूं शायरी को खींचते ,
    जैसे चारा मछली को पानी के बाहर खींचता ।

    कुछ अलग सा .....पर चारा मछली को फांस कर खींचता है .....

    डूबते हैं आंख में अरमान इस उम्मीद से ,
    कोई तो ‘ज़ाहिद’ मिरे बाजू़ को आकर खींचता ।।

    आँखों में तो मोहब्बत का वास होता है ....डूबे रहिये .....!!

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  9. लफ़्ज़ मेरे हलक़ से यूं शायरी को खींचते ,
    जैसे चारा मछली को पानी के बाहर खींचता ।।

    इस कदर है अपने ढंकने की ज़माने को फिक़र ,
    नींद में भी ,जो है अपना , वो ही चादर खींचता।।


    शब्द आकर्षित करते हैं और आकर्शक षब्दों का जादू चल ही जाता है। ठगने और फांसने फंसाने में माहिर होते है लफ्ज़ इसीलिए शब्द बना लफ्फाज़ी.....वाह आच्छा परिकल्पन..
    दुसरा शेर तो ..सचमुच क्या कहें?

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  10. कितनी कितनी दूर की नदियों को सागर खींचता ।।
    रूप ,धन ,वैभव नहीं ,सबको ही आदर खींचता ।।
    वाह ज़ाहिद साहब ,बेहद सच्ची बात कही

    हर कुएं सूने दिखे यां हर नदी सूखी मिली ,
    काश मैं बहती हुई धारा से गागर खींचता ।।

    डूबते हैं आंख में अरमान इस उम्मीद से ,
    कोई तो ‘ज़ाहिद’ मिरे बाजू़ को आकर खींचता ।।

    बहुत उम्दा

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  11. लफ़्ज़ मेरे हलक़ से यूं शायरी को खींचते ,
    जैसे चारा मछली को पानी के बाहर खींचता ।।

    bahut khubsurat racha hai

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  12. हर कुएं सूने दिखे यां हर नदी सूखी मिली ,
    काश मैं बहती हुई धारा से गागर खींचता ।।
    waah

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  13. bahut umda sher.......sacchaee ko mukhrit karate hue.....
    mere blog par aana accha laga.....shukria.

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  14. बहुत ताज़गी और नया पन लिए हैं आपके शेर .... बहुत लाजवाब ग़ज़ल और खूबसूरत शेर ....

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  15. ग़ज़ल में भाव बहुत ही असरदार हैं
    मौज़ू खुद ब खुद खींचता है
    बधाई

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  16. Kumar Sahab

    Is behtariin ghazal ke liye dheron daad kabool karen.

    Neeraj

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  17. इस कदर है अपने ढंकने की ज़माने को फिक़र ,
    नींद में भी ,जो है अपना , वो ही चादर खींचता।।

    ग़ज़ल बहुत सुन्दर है पर ये शेर मुझे बहुत ही अच्छा लगा .... बेहतरीन लिखा है आपने !

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  18. बाज़ू को आकर खींचता,
    चादर खींचता
    दोनों मिसरे कमाल हैं और शे'र तो और उम्दा बन पड़े हैं।

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  19. डूबते हैं आंख में अरमान इस उम्मीद से ,
    कोई तो ‘ज़ाहिद’ मिरे बाजू़ को आकर खींचता ।।
    Aise alfaazon ke liye ek 'wah' chhod aur soojhta nahi!

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