Saturday, November 9, 2013

रूह की ग़ज़ल


रूह की ग़ज़ल

आजकल बदला हुआ ख़ामोश शहर है।
फूलों की खुशबुओं में भी बारूदी जहर है।

जो दे रहे अवाम को जन्नत के दिलासे,
रंजिश, अदावतों से भरी उनकी नज़र है।

हमने तो अमनोचैन की रोपी थी क्यारियां,
कैसे यहां ऊगे हुए ये जुल्मोकहर हैं।

खेतों के वास्ते पसीने हमने बहाए,
पर क्यों यहां आंसू भरी हर एक लहर है।

जख्मों को सदा हंस के मरहम हौसलों की दी,
ना जाने कैसे रह गए पर उनके असर हैं।

जिस्मों के जतन से संभाले काफ़ि़ए,रदीफ़,
पर रूह की ग़ज़ल में बहक जाती बहर है।

‘ज़ाहिद’ की मुट्ठियों में फ़क़त रेत रह गई,
जाने कहां समा गई अमृत की नहर है।

              09.11.13





2 comments:

  1. बेहतरीन ग़ज़ल...

    ReplyDelete
  2. लाजवाब शेरों से सजी गज़ल ... बहुत खूब ...

    ReplyDelete