Sunday, August 28, 2011

कुछ और मुक्तक



वृक्षारोपण

1.
बहुत है भीड़ फिर भी शहर क्यों सुनसान लगता है ?
कटे हैं पेड़ तो जंगल भी अब शमसान लगता हैं.
कहीं पुरखों का बूढ़ा पेड़ भी गिर जाए न इक दिन,
पिता के बाद से घर वैसे भी वीरान लगता है।

2.
तुम्हारी चाहतें अच्छी, सभी फरमाइशें अच्छी।
तुम्हारी चांद पर जा बसने की सब ख्वाहिशें अच्छी।
जो जंगल काटकर तुमने सितारा होटलें खोलीं,
तुम्हें तन्हाई में रोने की अब गुंजाइशें अच्छी ।

3.
जमूरे! आ , ज़रा आकर नया जादू तो दिखलाना।
कि साहब के छुपा है दिल में क्या सबको बता जाना।
निकलते आजकल है खानों के डिब्बों से टाइम बम,
किसी की जेब से इंसानियत निकले तो ले आना।


स्वतंत्रता दिवस

15.अग.2011
1. पतंग स्वतंत्रता की

टूटे दिलों के कांच से मंजा बना रहे।
फिर उससे बांधकर स्वतंत्रता उड़ा रहे।
कितनी मिली खुशी कि किसी की जो कट गई,
झटके हज़ार देके लो वो मुस्कुरा रहे।

2. अपनी अपनी रात

दीवारें शक़ की हम हिफ़ाजतन उठा रहे।
तालों पै ताले जड़के घरों को बचा रहे।
इक आधी रात वो कि वतन में जले चराग़,
इक आधी रात ये कि हम बत्ती बुझा रहे।


3. इन्साफ

ठहरी नदी में पानी कहां साफ़ मिलेगा ?
घड़ियालों को सौ खून यहां माफ़ मिलेगा,
सीने पै पड़े जख्मों के हिसाब न मांगों ,
जुर्माें के शहर में कहां इन्साफ़ मिलेगा।

4. जहां पानी ठहरता है

यहां आवारापन , बादल की जब पहचान होती है।
करूं क्या, सोच मेरी सुन के ये, हैरान होती है।
किसे देता नहीं पानी , बचा लो या बहा डालो
जहां पानी ठहरता है , वहां पर धान होती है।