जो दिल ही नहीं लेते हैं अक्सर जान लेते हैं
उन्हें हम बारहा दिल से दिलोजां मान लेते हैं
ये गुल गुलशन ये शहरों की हंसीं रंगीनियां सारी
ये चादर नींद में ख्वाबों की है , हम तान लेते हैं
कभी खुलकर नहीं रोती ,कभी शिकवा नहीं करती
अंधेरे में सिसकती मां को हम पहचान लेते हैं
किसे मंज़िल नहीं मिलती किसे रस्ता नहीं मिलता
सुना है मिलता है सब कुछ अगर हम ठान लेते हैं
इन्हीं गलियों में मिलते हैं कभी इंसां कभी शैतां
कि हम बंजारा हैं सारा इलाक़ा छान लेते हैं
सुनारों की दुकां के सामने अक्सर उन्हें देखा
वो सुनझर1 हैं जो कचरे से ही सोना खान 2 लेते हैं
शहरवालों के दिल में क्या पता ‘ज़ाहिद’ बसा क्या है
वो मंडी के लिए बंजर नहीं दहकान 3 लेते हैं
× कुमार ज़ाहिद , 131109.
1. सुनझर या सोनझर का अर्थ सोना गलानेवाली आदिवासी जाति जो सोने का काम होनेवाली दूकानों के सामने से कचरा उठाकर उसे गलाकर सोना निकालते हैं ।
2. खानना यानी खोजना , ढूंढना । 3. दहकान यानी खेत ,
Sunday, November 22, 2009
Thursday, November 19, 2009
जगह मेरी
उसने सोच समझकर तै की जगह मेरी दीवानों में
हल्के फुल्के ऊपर रख्खे मुझे रखा तहख़ानों में
दिल की बातें कह सकते गर घर में मंदिर मस्ज़िद में
बोलों फिर क्या कहने जाते जले जिगर मयख़ानों में
उल्टी पुल्टी दिखती दुनिया जब जब होश में रहते हैं
पीकर कोई नुख्श न दिखता बाज़ारू पैमानों में
कभी गिरेबां नाप रहे तो कभी हथेली चूम रहे
ऊपर नीचे हो ही जाते हैं पलड़े मीज़ानों में
प्यार मोहब्बत बेघर बेदर शहर इज़ारेदारों का
आंसू भरे सरों की ख़ातिर जगह नहीं है सानों में
जीस्त ये ढाई लफ़्ज़ों की है मगर बोलियों में गुम है
मोल भाव है नीलामी है मज़हब के उन्वानों में
झूम रही हो सबकी हस्ती मस्ती हो जब सबके पास
होश की बातें की तो ‘ज़ाहिद’ ख़ैर नहीं रिन्दानों में
goodfriday 170492/061109
हल्के फुल्के ऊपर रख्खे मुझे रखा तहख़ानों में
दिल की बातें कह सकते गर घर में मंदिर मस्ज़िद में
बोलों फिर क्या कहने जाते जले जिगर मयख़ानों में
उल्टी पुल्टी दिखती दुनिया जब जब होश में रहते हैं
पीकर कोई नुख्श न दिखता बाज़ारू पैमानों में
कभी गिरेबां नाप रहे तो कभी हथेली चूम रहे
ऊपर नीचे हो ही जाते हैं पलड़े मीज़ानों में
प्यार मोहब्बत बेघर बेदर शहर इज़ारेदारों का
आंसू भरे सरों की ख़ातिर जगह नहीं है सानों में
जीस्त ये ढाई लफ़्ज़ों की है मगर बोलियों में गुम है
मोल भाव है नीलामी है मज़हब के उन्वानों में
झूम रही हो सबकी हस्ती मस्ती हो जब सबके पास
होश की बातें की तो ‘ज़ाहिद’ ख़ैर नहीं रिन्दानों में
goodfriday 170492/061109
Friday, November 13, 2009
यानी नज़र में हूं !
नज़रें चुरा रहे हैं वो , यानी नज़र में हूं !
कतरा के जा रहे है वो , यानी नज़र में हूं !
जिनसे कभी नहीं मिले उनसे ही मिल रहे ,
मिलकर जला रहे हैं वो , यानी नज़र में हूं !
जिस पल्लू में क़समों की गांठ है मिरे खि़लाफ़ ,
उसको झुला रहे हैं वो , यानी नज़र में हूं !
किस पर गिरेगी बिजली फ़िज़ा में है खलबली ,
मेघों-से छा रहे हैं वो , यानी नज़र में हूं !
उनकी हथेलियों में क़त्ल की लकीर है ,
मेंहदी रचा रहे हैं वो , यानी नज़र में हूं !
080609.
कतरा के जा रहे है वो , यानी नज़र में हूं !
जिनसे कभी नहीं मिले उनसे ही मिल रहे ,
मिलकर जला रहे हैं वो , यानी नज़र में हूं !
जिस पल्लू में क़समों की गांठ है मिरे खि़लाफ़ ,
उसको झुला रहे हैं वो , यानी नज़र में हूं !
किस पर गिरेगी बिजली फ़िज़ा में है खलबली ,
मेघों-से छा रहे हैं वो , यानी नज़र में हूं !
उनकी हथेलियों में क़त्ल की लकीर है ,
मेंहदी रचा रहे हैं वो , यानी नज़र में हूं !
080609.
Friday, November 6, 2009
उल्फत की अदा
आप कह लीजिए इसको जो सज़ा कहते हैं।
हम तो अपनों के सितम को भी मज़ा कहते हैं।
तीर जब तन गए तो हंस के खोल दी छाती
कहनेवाले इसे उल्फ़त की अदा कहते हैं।
वो जो कुछ देर अगर देखते हैं इस ज़ानिब
हम उसे इश्क़ की ख़ामोश सदा कहते हैं
ऐसे मौसम में हैं हम जानिबेगुलशन जिसको
चंद संजीदा ज़हन दौरेख़िजां कहते हैं।
हमने तोड़ी है नींद उनके वहम की ताहम
नामवर अहलेअमन हमको बुरा कहते हैं।
इतनी तहजीब है मजहब की यहां पर यारों
चीख सुनते हैं अदब से वो अजां कहते हैं।
शौक से कौन पकड़ता है दामने ‘जाहिद’
जब्र से सब्र से टूटे तो खुदा कहते हैं
नैन.92.93
हम तो अपनों के सितम को भी मज़ा कहते हैं।
तीर जब तन गए तो हंस के खोल दी छाती
कहनेवाले इसे उल्फ़त की अदा कहते हैं।
वो जो कुछ देर अगर देखते हैं इस ज़ानिब
हम उसे इश्क़ की ख़ामोश सदा कहते हैं
ऐसे मौसम में हैं हम जानिबेगुलशन जिसको
चंद संजीदा ज़हन दौरेख़िजां कहते हैं।
हमने तोड़ी है नींद उनके वहम की ताहम
नामवर अहलेअमन हमको बुरा कहते हैं।
इतनी तहजीब है मजहब की यहां पर यारों
चीख सुनते हैं अदब से वो अजां कहते हैं।
शौक से कौन पकड़ता है दामने ‘जाहिद’
जब्र से सब्र से टूटे तो खुदा कहते हैं
नैन.92.93
Sunday, November 1, 2009
मैं समय हूं
आज गुरुनानक जयंती है ।
हिन्दुस्तान के तमाम उन लोगों को जो संतों की परम्परा पर आस्था रखते है इस पूर्णिमा पर साधुवाद!
आज ही बन आई यह ग़ज़ल आपकी नजर है
रात मर जाता सुबह जीता हूं ।
मैं अंधेरों के ज़हर पीता हूं ।
सिर्फ़ मासूम हिरन हैं पल-छिन
मैं समय हूं सतर्क चीता हूं ।
ज़र्रे ख़्वाबों के फुलाते फुग्गे
सच की सूई हूं मैं फजीता हूं
आग चूल्हों की सावधान रहे
घोषणाओं का मैं पलीता हूं
समाईं शहरों में झीलें सारी
मैं हूं जलकुंड मगर रीता हूं
आख़री सांस में सुनते क्यों हो
मैं तो कर्मों से भरी गीता हूं
हार ‘ज़ाहिद’ पै डालकर खुश हूं
जिसकी हर हार से मैं जीता हूं
02.11.09 ,गुरुनानक जयंती
ज़हर - जितने किस्म के अंघेरे, ज़हर उतने ,यानी ज़हर भी बहुवचनों में..इसलिए अंधेरों के ज़हर
फजीता - फ़ज़ीहत ही बोलचाल में,लोकशैली में फजीता हो गया है, अर्थ वही अपमान,परेशानी,मुसीबत...
हिन्दुस्तान के तमाम उन लोगों को जो संतों की परम्परा पर आस्था रखते है इस पूर्णिमा पर साधुवाद!
आज ही बन आई यह ग़ज़ल आपकी नजर है
रात मर जाता सुबह जीता हूं ।
मैं अंधेरों के ज़हर पीता हूं ।
सिर्फ़ मासूम हिरन हैं पल-छिन
मैं समय हूं सतर्क चीता हूं ।
ज़र्रे ख़्वाबों के फुलाते फुग्गे
सच की सूई हूं मैं फजीता हूं
आग चूल्हों की सावधान रहे
घोषणाओं का मैं पलीता हूं
समाईं शहरों में झीलें सारी
मैं हूं जलकुंड मगर रीता हूं
आख़री सांस में सुनते क्यों हो
मैं तो कर्मों से भरी गीता हूं
हार ‘ज़ाहिद’ पै डालकर खुश हूं
जिसकी हर हार से मैं जीता हूं
02.11.09 ,गुरुनानक जयंती
ज़हर - जितने किस्म के अंघेरे, ज़हर उतने ,यानी ज़हर भी बहुवचनों में..इसलिए अंधेरों के ज़हर
फजीता - फ़ज़ीहत ही बोलचाल में,लोकशैली में फजीता हो गया है, अर्थ वही अपमान,परेशानी,मुसीबत...
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