विश्व क्या है रूप का जंजाल
एक ही मुख दूसरे की ढाल
चौंध मुस्कानों की बांधे है
कस रही मायावी अपना जाल
देखकर चेहरा पढ़ोगे क्या
है त्रिपुण्डों से पुता जब भाल
इधर से घुसना निकल जाना उधर
नए युग की जटिलतम है चाल
सच कसाई का गंडासा है
खींच लेगा एक दिन जो खाल
काट पाया कब कोई कैसे
क्या कहें कितना कठिनतम काल
रोशनी जो कम करे मन की
मत कभी ऐसे अंधेरे पाल
लोग तो झांकी में उलझे हैं
आरती को और थोड़ा टाल
एक मुट्ठी राख अनुभव की
कर गई ‘ज़ाहिद’ को मालामाल
261096
Sunday, December 27, 2009
Wednesday, December 16, 2009
तुझको अपना बना के देख लिया
खुद को यूं आजमा के देख लिया
तुझको अपना बना के देख लिया
रात के बाद दिन भी आता है
जागी रातें बिता के देख लिया
सैकड़ों फूल रोशनी के खिले
किसने चिलमन हटा के देख लिया
उसका दामन न उसके हाथ में है
लाख आंसू बहा के देख लिया
रोते रोते यूं हंस पड़ा ‘ज़ाहिद’
जैसे सब कुछ लुटा के देख लिया
तुझको अपना बना के देख लिया
रात के बाद दिन भी आता है
जागी रातें बिता के देख लिया
सैकड़ों फूल रोशनी के खिले
किसने चिलमन हटा के देख लिया
उसका दामन न उसके हाथ में है
लाख आंसू बहा के देख लिया
रोते रोते यूं हंस पड़ा ‘ज़ाहिद’
जैसे सब कुछ लुटा के देख लिया
Wednesday, December 2, 2009
इक बोसा दस्तख़त सा
बेरंग किया गया-सा सफ़र मिल गया मुझे
ख़त पर टिकट नहीं था मगर मिल गया मुझे
सरगोशियां खंढर में उड़ रहीं थीं गर्द सी
घर हादसे में ढेर था पर मिल गया मुझे
मां ने कहा था देगा घनी छांव ,मीठे फल
सड़के बनीं तो उखड़ा शज़र मिल गया मुझे
इक सोते के पानी में झुका प्यास बुझाने
कंधें से हटाया हुआ सर मिल गया मुझे
ज़ाहिद जबीं थी कोई रसीदी टिकट न थी
इक बोसा दस्तख़त सा किधर मिल गया मुझे
× कुमार ज़ाहिद , 151109
ख़त पर टिकट नहीं था मगर मिल गया मुझे
सरगोशियां खंढर में उड़ रहीं थीं गर्द सी
घर हादसे में ढेर था पर मिल गया मुझे
मां ने कहा था देगा घनी छांव ,मीठे फल
सड़के बनीं तो उखड़ा शज़र मिल गया मुझे
इक सोते के पानी में झुका प्यास बुझाने
कंधें से हटाया हुआ सर मिल गया मुझे
ज़ाहिद जबीं थी कोई रसीदी टिकट न थी
इक बोसा दस्तख़त सा किधर मिल गया मुझे
× कुमार ज़ाहिद , 151109
Sunday, November 22, 2009
ये चादर नींद में ख्वाबों की है
जो दिल ही नहीं लेते हैं अक्सर जान लेते हैं
उन्हें हम बारहा दिल से दिलोजां मान लेते हैं
ये गुल गुलशन ये शहरों की हंसीं रंगीनियां सारी
ये चादर नींद में ख्वाबों की है , हम तान लेते हैं
कभी खुलकर नहीं रोती ,कभी शिकवा नहीं करती
अंधेरे में सिसकती मां को हम पहचान लेते हैं
किसे मंज़िल नहीं मिलती किसे रस्ता नहीं मिलता
सुना है मिलता है सब कुछ अगर हम ठान लेते हैं
इन्हीं गलियों में मिलते हैं कभी इंसां कभी शैतां
कि हम बंजारा हैं सारा इलाक़ा छान लेते हैं
सुनारों की दुकां के सामने अक्सर उन्हें देखा
वो सुनझर1 हैं जो कचरे से ही सोना खान 2 लेते हैं
शहरवालों के दिल में क्या पता ‘ज़ाहिद’ बसा क्या है
वो मंडी के लिए बंजर नहीं दहकान 3 लेते हैं
× कुमार ज़ाहिद , 131109.
1. सुनझर या सोनझर का अर्थ सोना गलानेवाली आदिवासी जाति जो सोने का काम होनेवाली दूकानों के सामने से कचरा उठाकर उसे गलाकर सोना निकालते हैं ।
2. खानना यानी खोजना , ढूंढना । 3. दहकान यानी खेत ,
उन्हें हम बारहा दिल से दिलोजां मान लेते हैं
ये गुल गुलशन ये शहरों की हंसीं रंगीनियां सारी
ये चादर नींद में ख्वाबों की है , हम तान लेते हैं
कभी खुलकर नहीं रोती ,कभी शिकवा नहीं करती
अंधेरे में सिसकती मां को हम पहचान लेते हैं
किसे मंज़िल नहीं मिलती किसे रस्ता नहीं मिलता
सुना है मिलता है सब कुछ अगर हम ठान लेते हैं
इन्हीं गलियों में मिलते हैं कभी इंसां कभी शैतां
कि हम बंजारा हैं सारा इलाक़ा छान लेते हैं
सुनारों की दुकां के सामने अक्सर उन्हें देखा
वो सुनझर1 हैं जो कचरे से ही सोना खान 2 लेते हैं
शहरवालों के दिल में क्या पता ‘ज़ाहिद’ बसा क्या है
वो मंडी के लिए बंजर नहीं दहकान 3 लेते हैं
× कुमार ज़ाहिद , 131109.
1. सुनझर या सोनझर का अर्थ सोना गलानेवाली आदिवासी जाति जो सोने का काम होनेवाली दूकानों के सामने से कचरा उठाकर उसे गलाकर सोना निकालते हैं ।
2. खानना यानी खोजना , ढूंढना । 3. दहकान यानी खेत ,
Thursday, November 19, 2009
जगह मेरी
उसने सोच समझकर तै की जगह मेरी दीवानों में
हल्के फुल्के ऊपर रख्खे मुझे रखा तहख़ानों में
दिल की बातें कह सकते गर घर में मंदिर मस्ज़िद में
बोलों फिर क्या कहने जाते जले जिगर मयख़ानों में
उल्टी पुल्टी दिखती दुनिया जब जब होश में रहते हैं
पीकर कोई नुख्श न दिखता बाज़ारू पैमानों में
कभी गिरेबां नाप रहे तो कभी हथेली चूम रहे
ऊपर नीचे हो ही जाते हैं पलड़े मीज़ानों में
प्यार मोहब्बत बेघर बेदर शहर इज़ारेदारों का
आंसू भरे सरों की ख़ातिर जगह नहीं है सानों में
जीस्त ये ढाई लफ़्ज़ों की है मगर बोलियों में गुम है
मोल भाव है नीलामी है मज़हब के उन्वानों में
झूम रही हो सबकी हस्ती मस्ती हो जब सबके पास
होश की बातें की तो ‘ज़ाहिद’ ख़ैर नहीं रिन्दानों में
goodfriday 170492/061109
हल्के फुल्के ऊपर रख्खे मुझे रखा तहख़ानों में
दिल की बातें कह सकते गर घर में मंदिर मस्ज़िद में
बोलों फिर क्या कहने जाते जले जिगर मयख़ानों में
उल्टी पुल्टी दिखती दुनिया जब जब होश में रहते हैं
पीकर कोई नुख्श न दिखता बाज़ारू पैमानों में
कभी गिरेबां नाप रहे तो कभी हथेली चूम रहे
ऊपर नीचे हो ही जाते हैं पलड़े मीज़ानों में
प्यार मोहब्बत बेघर बेदर शहर इज़ारेदारों का
आंसू भरे सरों की ख़ातिर जगह नहीं है सानों में
जीस्त ये ढाई लफ़्ज़ों की है मगर बोलियों में गुम है
मोल भाव है नीलामी है मज़हब के उन्वानों में
झूम रही हो सबकी हस्ती मस्ती हो जब सबके पास
होश की बातें की तो ‘ज़ाहिद’ ख़ैर नहीं रिन्दानों में
goodfriday 170492/061109
Friday, November 13, 2009
यानी नज़र में हूं !
नज़रें चुरा रहे हैं वो , यानी नज़र में हूं !
कतरा के जा रहे है वो , यानी नज़र में हूं !
जिनसे कभी नहीं मिले उनसे ही मिल रहे ,
मिलकर जला रहे हैं वो , यानी नज़र में हूं !
जिस पल्लू में क़समों की गांठ है मिरे खि़लाफ़ ,
उसको झुला रहे हैं वो , यानी नज़र में हूं !
किस पर गिरेगी बिजली फ़िज़ा में है खलबली ,
मेघों-से छा रहे हैं वो , यानी नज़र में हूं !
उनकी हथेलियों में क़त्ल की लकीर है ,
मेंहदी रचा रहे हैं वो , यानी नज़र में हूं !
080609.
कतरा के जा रहे है वो , यानी नज़र में हूं !
जिनसे कभी नहीं मिले उनसे ही मिल रहे ,
मिलकर जला रहे हैं वो , यानी नज़र में हूं !
जिस पल्लू में क़समों की गांठ है मिरे खि़लाफ़ ,
उसको झुला रहे हैं वो , यानी नज़र में हूं !
किस पर गिरेगी बिजली फ़िज़ा में है खलबली ,
मेघों-से छा रहे हैं वो , यानी नज़र में हूं !
उनकी हथेलियों में क़त्ल की लकीर है ,
मेंहदी रचा रहे हैं वो , यानी नज़र में हूं !
080609.
Friday, November 6, 2009
उल्फत की अदा
आप कह लीजिए इसको जो सज़ा कहते हैं।
हम तो अपनों के सितम को भी मज़ा कहते हैं।
तीर जब तन गए तो हंस के खोल दी छाती
कहनेवाले इसे उल्फ़त की अदा कहते हैं।
वो जो कुछ देर अगर देखते हैं इस ज़ानिब
हम उसे इश्क़ की ख़ामोश सदा कहते हैं
ऐसे मौसम में हैं हम जानिबेगुलशन जिसको
चंद संजीदा ज़हन दौरेख़िजां कहते हैं।
हमने तोड़ी है नींद उनके वहम की ताहम
नामवर अहलेअमन हमको बुरा कहते हैं।
इतनी तहजीब है मजहब की यहां पर यारों
चीख सुनते हैं अदब से वो अजां कहते हैं।
शौक से कौन पकड़ता है दामने ‘जाहिद’
जब्र से सब्र से टूटे तो खुदा कहते हैं
नैन.92.93
हम तो अपनों के सितम को भी मज़ा कहते हैं।
तीर जब तन गए तो हंस के खोल दी छाती
कहनेवाले इसे उल्फ़त की अदा कहते हैं।
वो जो कुछ देर अगर देखते हैं इस ज़ानिब
हम उसे इश्क़ की ख़ामोश सदा कहते हैं
ऐसे मौसम में हैं हम जानिबेगुलशन जिसको
चंद संजीदा ज़हन दौरेख़िजां कहते हैं।
हमने तोड़ी है नींद उनके वहम की ताहम
नामवर अहलेअमन हमको बुरा कहते हैं।
इतनी तहजीब है मजहब की यहां पर यारों
चीख सुनते हैं अदब से वो अजां कहते हैं।
शौक से कौन पकड़ता है दामने ‘जाहिद’
जब्र से सब्र से टूटे तो खुदा कहते हैं
नैन.92.93
Sunday, November 1, 2009
मैं समय हूं
आज गुरुनानक जयंती है ।
हिन्दुस्तान के तमाम उन लोगों को जो संतों की परम्परा पर आस्था रखते है इस पूर्णिमा पर साधुवाद!
आज ही बन आई यह ग़ज़ल आपकी नजर है
रात मर जाता सुबह जीता हूं ।
मैं अंधेरों के ज़हर पीता हूं ।
सिर्फ़ मासूम हिरन हैं पल-छिन
मैं समय हूं सतर्क चीता हूं ।
ज़र्रे ख़्वाबों के फुलाते फुग्गे
सच की सूई हूं मैं फजीता हूं
आग चूल्हों की सावधान रहे
घोषणाओं का मैं पलीता हूं
समाईं शहरों में झीलें सारी
मैं हूं जलकुंड मगर रीता हूं
आख़री सांस में सुनते क्यों हो
मैं तो कर्मों से भरी गीता हूं
हार ‘ज़ाहिद’ पै डालकर खुश हूं
जिसकी हर हार से मैं जीता हूं
02.11.09 ,गुरुनानक जयंती
ज़हर - जितने किस्म के अंघेरे, ज़हर उतने ,यानी ज़हर भी बहुवचनों में..इसलिए अंधेरों के ज़हर
फजीता - फ़ज़ीहत ही बोलचाल में,लोकशैली में फजीता हो गया है, अर्थ वही अपमान,परेशानी,मुसीबत...
हिन्दुस्तान के तमाम उन लोगों को जो संतों की परम्परा पर आस्था रखते है इस पूर्णिमा पर साधुवाद!
आज ही बन आई यह ग़ज़ल आपकी नजर है
रात मर जाता सुबह जीता हूं ।
मैं अंधेरों के ज़हर पीता हूं ।
सिर्फ़ मासूम हिरन हैं पल-छिन
मैं समय हूं सतर्क चीता हूं ।
ज़र्रे ख़्वाबों के फुलाते फुग्गे
सच की सूई हूं मैं फजीता हूं
आग चूल्हों की सावधान रहे
घोषणाओं का मैं पलीता हूं
समाईं शहरों में झीलें सारी
मैं हूं जलकुंड मगर रीता हूं
आख़री सांस में सुनते क्यों हो
मैं तो कर्मों से भरी गीता हूं
हार ‘ज़ाहिद’ पै डालकर खुश हूं
जिसकी हर हार से मैं जीता हूं
02.11.09 ,गुरुनानक जयंती
ज़हर - जितने किस्म के अंघेरे, ज़हर उतने ,यानी ज़हर भी बहुवचनों में..इसलिए अंधेरों के ज़हर
फजीता - फ़ज़ीहत ही बोलचाल में,लोकशैली में फजीता हो गया है, अर्थ वही अपमान,परेशानी,मुसीबत...
Friday, October 30, 2009
मेरे बिछुड़े हुए अफ़सोस
मेरे बिछुड़े हुए अफ़सोस
हाली लम्हे मेरे माज़ी से लिपटकर रो लें ।।
मैं ये चाहूं कि जागे साल रात भर सो लें ।।
ख्वाब सदियों के नदी बनके आंख से बहते ,
दर्द आएं हरे जख्मों की रिसन को धो लें ।।
खूब कोशिश में हैं कि जिन्दगी हमराज बने,
दौरेतारीक़ी में मुमकिन है मुट्ठियां खोले।
जो थे अपने वो गिले बनके दूर जा बैठे ,
मेरे बिछुड़े हुए अफ़सोस हमीं इक हो लें ।।
दिलका ’ज़ाहिद’ है नरम उसको होश कल का है ,
इसलिए चुप है वो मुमकिन है कभी ना बोले ।।
160505.
हाली लम्हे मेरे माज़ी से लिपटकर रो लें ।।
मैं ये चाहूं कि जागे साल रात भर सो लें ।।
ख्वाब सदियों के नदी बनके आंख से बहते ,
दर्द आएं हरे जख्मों की रिसन को धो लें ।।
खूब कोशिश में हैं कि जिन्दगी हमराज बने,
दौरेतारीक़ी में मुमकिन है मुट्ठियां खोले।
जो थे अपने वो गिले बनके दूर जा बैठे ,
मेरे बिछुड़े हुए अफ़सोस हमीं इक हो लें ।।
दिलका ’ज़ाहिद’ है नरम उसको होश कल का है ,
इसलिए चुप है वो मुमकिन है कभी ना बोले ।।
160505.
Tuesday, October 27, 2009
अपने होने की निशानी
फिर वो तहरीर पुरानी देखी ।
ठहरी नब्जों में रवानी देखी ।।
फिर बहुत देर आइना देखा ,
अपने होने की निशानी देखी ।।
आज आंखों में जैसे धूप खिली ,
क्या कोई चीज़ सुहानी देखी ।।
दिल में सांपों के बसेरे देखे ,
आह में रात की रानी देखी ।।
सादापन रोज़ बावला देखा ,
साज़िशें सदियों सयानी देखी।
रात का रंग दमकते देखा ,
झूमती गाती जवानी देखी ।।
आज ’ज़ाहिद’ के जब्त के भीतर ,
पीर की गश्तेज़हानी देखी ।।
17.0805.
ठहरी नब्जों में रवानी देखी ।।
फिर बहुत देर आइना देखा ,
अपने होने की निशानी देखी ।।
आज आंखों में जैसे धूप खिली ,
क्या कोई चीज़ सुहानी देखी ।।
दिल में सांपों के बसेरे देखे ,
आह में रात की रानी देखी ।।
सादापन रोज़ बावला देखा ,
साज़िशें सदियों सयानी देखी।
रात का रंग दमकते देखा ,
झूमती गाती जवानी देखी ।।
आज ’ज़ाहिद’ के जब्त के भीतर ,
पीर की गश्तेज़हानी देखी ।।
17.0805.
Friday, October 23, 2009
सुबह का पता
ठहरी हुई है रात , सुबह का पता नहीं ।
कोई कहीं है बात , सुबह का पता नहीं ।
अंधी हुई हैं हलचलें ,गूंगी हैं हसरतें ,
कैसे मिले निजात , सुबह का पता नहीं ।
जिसकी हथेलियों की हिना ख्वाबदार थी ,
गुमसुम है वो हयात , सुबह का पता नहीं ।
खुद को चढ़ा लिया है सलीबों में आदतन ,
अच्छे नहीं हालात , सुबह का पता नहीं ।
जब्तोसुकूं से दूर हैं ’जाहिद’ के रात दिन ,
जख्मी हुए ज़ज़्बात , सुबह का पता नहीं ।
050805.241009
कोई कहीं है बात , सुबह का पता नहीं ।
अंधी हुई हैं हलचलें ,गूंगी हैं हसरतें ,
कैसे मिले निजात , सुबह का पता नहीं ।
जिसकी हथेलियों की हिना ख्वाबदार थी ,
गुमसुम है वो हयात , सुबह का पता नहीं ।
खुद को चढ़ा लिया है सलीबों में आदतन ,
अच्छे नहीं हालात , सुबह का पता नहीं ।
जब्तोसुकूं से दूर हैं ’जाहिद’ के रात दिन ,
जख्मी हुए ज़ज़्बात , सुबह का पता नहीं ।
050805.241009
Saturday, October 17, 2009
मुहब्बत का वज़न मिलता नहीं
क्या पता अब बात क्या है मन से मन मिलता नहीं
भीड़ जब से बढ़ गई है अपनापन मिलता नहीं
बोझ है कितना दिलों पर सुस्त है जीने का ढंग
नाम बांकेलाल है पर बांकपन मिलता नहीं
चाहता हूं बांट दूं सारा जो धन है प्यार का
प्यार जिसको चाहिए ऐसा स्वजन मिलता नहीं
जरजमीनोजार के है सब दीवानावार यार
आदमी की चाह का दीवानापन मिलता नहीं
अब भी सुनते हैं पुकारो तो मगर बेमन से क्यों
क्या पुकारों में मुहब्बत का वज़न मिलता नहीं
हम जमाने से अलग हो दूर जाकर क्यों चलें
साथ चलने में कभी बेगानापन मिलता नहीं
हाथ ‘ज़ाहिद’ ने बढ़ाया है तो बढ़कर थाम लो
वर्ना पछताओगे मिलनेवाला जन मिलता नहीं
भीड़ जब से बढ़ गई है अपनापन मिलता नहीं
बोझ है कितना दिलों पर सुस्त है जीने का ढंग
नाम बांकेलाल है पर बांकपन मिलता नहीं
चाहता हूं बांट दूं सारा जो धन है प्यार का
प्यार जिसको चाहिए ऐसा स्वजन मिलता नहीं
जरजमीनोजार के है सब दीवानावार यार
आदमी की चाह का दीवानापन मिलता नहीं
अब भी सुनते हैं पुकारो तो मगर बेमन से क्यों
क्या पुकारों में मुहब्बत का वज़न मिलता नहीं
हम जमाने से अलग हो दूर जाकर क्यों चलें
साथ चलने में कभी बेगानापन मिलता नहीं
हाथ ‘ज़ाहिद’ ने बढ़ाया है तो बढ़कर थाम लो
वर्ना पछताओगे मिलनेवाला जन मिलता नहीं
Wednesday, October 14, 2009
ईसा सब हाथ मलते देखें हैं
ज़र्रे अक्सर उबलते देखें हैं
दौरेहस्ती जो चलते देखे हैं
दूर तक रात है, गुमनामी है
रोज़ सौ सूर्य ढलते देखे है
पैरहन जिनके दागदार हुए
उनके रुतबे बदलते देखे हैं
चुरा सकते जो सुख जमाने के
नाम उनके उछलते देखे हैं
सारे जल्लाद हंसते देखे हैं
ईसा सब हाथ मलते देखे हैं
अब तबस्सुम में हैं शैतां बसते
दिल में यूं सांप पलते देखें हैं
खुशखयाली तो ख्वाब है‘ज़ाहिद’
शौक ये किसने फलते देखे हैं
दौरेहस्ती जो चलते देखे हैं
दूर तक रात है, गुमनामी है
रोज़ सौ सूर्य ढलते देखे है
पैरहन जिनके दागदार हुए
उनके रुतबे बदलते देखे हैं
चुरा सकते जो सुख जमाने के
नाम उनके उछलते देखे हैं
सारे जल्लाद हंसते देखे हैं
ईसा सब हाथ मलते देखे हैं
अब तबस्सुम में हैं शैतां बसते
दिल में यूं सांप पलते देखें हैं
खुशखयाली तो ख्वाब है‘ज़ाहिद’
शौक ये किसने फलते देखे हैं
Tuesday, October 13, 2009
अक्ल के अंधे
नींद आती नहीं है ,ख्वाब दिखाने आए ।।
अक्ल के अंधे गई रात जगाने आए ।।
जिस्म में जान नहीं है मगर रिवाज़ तो देख ,
चल के वैशाखी में ये देश चलाने आए ।।
बीच चैराहे में फिर कोई मसीहा लटका ,
मुर्दे झट जाग उठे ,लाश उठाने आए ।।
जिसको बांहों में ,बंद मुट्ठियों में रखना है ,
ऐसी इक चीज़ को ये अपना बनाने आए।।
कुुछ गए साल गए वक़्त का खाता लेकर ,
मेरे नामे पै चढ़ा क़र्ज़ बताने आए ।।
सर पै ’जाहिद’के हादिसों की यूं लाठी टूटी ,
जैसे अब सरफिरे की अक्ल ठिकाने आए ।।
अक्ल के अंधे गई रात जगाने आए ।।
जिस्म में जान नहीं है मगर रिवाज़ तो देख ,
चल के वैशाखी में ये देश चलाने आए ।।
बीच चैराहे में फिर कोई मसीहा लटका ,
मुर्दे झट जाग उठे ,लाश उठाने आए ।।
जिसको बांहों में ,बंद मुट्ठियों में रखना है ,
ऐसी इक चीज़ को ये अपना बनाने आए।।
कुुछ गए साल गए वक़्त का खाता लेकर ,
मेरे नामे पै चढ़ा क़र्ज़ बताने आए ।।
सर पै ’जाहिद’के हादिसों की यूं लाठी टूटी ,
जैसे अब सरफिरे की अक्ल ठिकाने आए ।।
Sunday, October 4, 2009
बोतलों में बंद पानी
पर्वतों चट्टान पर ठहरा नहीं ,स्वच्छंद पानी ।
लिख रहा बंजर पड़े मैदान पर ,नव-छंद पानी ।।
सभ्यता के होंठ पर दो बूंद तृप्ती छींटकर ,
बह नहीं सकता नदी सा ,बोतलों में बंद पानी ।।
है चमक आंखों में ,चेहरों में चमक है ,
इसलिए निर्मल कि रचता ,कुछ नहीं छल-छंद पानी ।।
आग की लपटों से लहरें ,होड़ ले लेकर लड़ें ,
जीत के इतिहास में रुतवा ,रखे बुलंद पानी ।।
रोज कितने फूटते हैं ,द्वैष के विष कूट-काले ,
डाल देता दहकते अंगार पर , आनंद पानी ।।
जब जहां दिल चाहता बस फूट पड़ता है वहां ,
कब कहां करता किसी से ,कोई भी अनुबंध पानी ।।
रिश्तों की दीवार हद उम्मीद निस्बत से है दूर
मां पिता‘जाहिद’किसी का है नहीं फरजंद पानी ।।
लिख रहा बंजर पड़े मैदान पर ,नव-छंद पानी ।।
सभ्यता के होंठ पर दो बूंद तृप्ती छींटकर ,
बह नहीं सकता नदी सा ,बोतलों में बंद पानी ।।
है चमक आंखों में ,चेहरों में चमक है ,
इसलिए निर्मल कि रचता ,कुछ नहीं छल-छंद पानी ।।
आग की लपटों से लहरें ,होड़ ले लेकर लड़ें ,
जीत के इतिहास में रुतवा ,रखे बुलंद पानी ।।
रोज कितने फूटते हैं ,द्वैष के विष कूट-काले ,
डाल देता दहकते अंगार पर , आनंद पानी ।।
जब जहां दिल चाहता बस फूट पड़ता है वहां ,
कब कहां करता किसी से ,कोई भी अनुबंध पानी ।।
रिश्तों की दीवार हद उम्मीद निस्बत से है दूर
मां पिता‘जाहिद’किसी का है नहीं फरजंद पानी ।।
Friday, October 2, 2009
उम्मीद के चेहरे
सारे शहर में उसने तबाही सी बाल दी
अपना पियाला भरके सुराही उछाल दी
हमने उड़ाए इंतजार के हवा में पल
वो देर से आए ओ कहा जां निकाल दी
मां को पता था भूख में बेहाल हैं बच्चे
दिल की दबाई आग में ममता उबाल दी
जिस आंख में उम्मीद के चेहरे जवां हुए
बाज़ार की मंदी ने वो आंखें निकाल दी
नंगी हुई हैं चाहतें ,राहत हैं दोगली
‘ज़ाहिद’ किसी ने अंधों को जलती मशाल दी
अपना पियाला भरके सुराही उछाल दी
हमने उड़ाए इंतजार के हवा में पल
वो देर से आए ओ कहा जां निकाल दी
मां को पता था भूख में बेहाल हैं बच्चे
दिल की दबाई आग में ममता उबाल दी
जिस आंख में उम्मीद के चेहरे जवां हुए
बाज़ार की मंदी ने वो आंखें निकाल दी
नंगी हुई हैं चाहतें ,राहत हैं दोगली
‘ज़ाहिद’ किसी ने अंधों को जलती मशाल दी
Sunday, September 6, 2009
खुद पर यकीन आते सुकूं उसको मिल गया
या मैं बदल गया हूं या फिर वो बदल गया ।
से मेरा सोच मुझसे भी आगे निकल गया ।।
जब तक था वो नादान तो गफ़लत में मै भी था ,
जब उसके होश सम्हले तो मैं भी सम्हल गया ।।
कल उंगलियां पकड़ के भी गिरता था बार बार ,
ये वो ही है जो हाथ लगाते उछल गया ।।
पहले तो मुंह में रखके चबाता था सोजोगम ,
इस बार वो तमाम रंजिशें निगल गया ।।
अब पूछता नहीं है सुकूं कैसे आएगा ,
खुद पै यक़ीन आते सुकूं उसको मिल गया ।।
वो पौधे जो ‘ज़ाहिद‘ ने लगाए थे रेत पर ,
उनमें से एक पौधा बड़ा होके फल गया ।।
120496
से मेरा सोच मुझसे भी आगे निकल गया ।।
जब तक था वो नादान तो गफ़लत में मै भी था ,
जब उसके होश सम्हले तो मैं भी सम्हल गया ।।
कल उंगलियां पकड़ के भी गिरता था बार बार ,
ये वो ही है जो हाथ लगाते उछल गया ।।
पहले तो मुंह में रखके चबाता था सोजोगम ,
इस बार वो तमाम रंजिशें निगल गया ।।
अब पूछता नहीं है सुकूं कैसे आएगा ,
खुद पै यक़ीन आते सुकूं उसको मिल गया ।।
वो पौधे जो ‘ज़ाहिद‘ ने लगाए थे रेत पर ,
उनमें से एक पौधा बड़ा होके फल गया ।।
120496
Wednesday, September 2, 2009
हैं हाज़रीन ग़ज़लें
इनसे न कुछ छुपा है ये हैं ज़हीन ग़ज़लें
पढ़ना मुसीबतों में मेरी हसीन ग़ज़लें ।।
वो सौ की एक कहती लाखों में कह के देखो
अरबों बरस जियेंगी सब बेहतरीन ग़ज़लें ।।
जब जब भी कहना चाहा -रखिये ख़याल अपना
चुपचाप पेश कर दीं ताज़ातरीन ग़ज़लें ।।
उनकी गवाह हैं ये ,जो नेक हैं ,दुखी हैं ,
सब साथ छोड़ दें पर हैं हाज़रीन ग़ज़लें ।।
हर वक्त घूमती हैं ‘ज़ाहिद‘ के आगे पीछे
सब दिलफरेब ग़ज़लें सब माहज़बीन ग़ज़लें ।।
100496
पढ़ना मुसीबतों में मेरी हसीन ग़ज़लें ।।
वो सौ की एक कहती लाखों में कह के देखो
अरबों बरस जियेंगी सब बेहतरीन ग़ज़लें ।।
जब जब भी कहना चाहा -रखिये ख़याल अपना
चुपचाप पेश कर दीं ताज़ातरीन ग़ज़लें ।।
उनकी गवाह हैं ये ,जो नेक हैं ,दुखी हैं ,
सब साथ छोड़ दें पर हैं हाज़रीन ग़ज़लें ।।
हर वक्त घूमती हैं ‘ज़ाहिद‘ के आगे पीछे
सब दिलफरेब ग़ज़लें सब माहज़बीन ग़ज़लें ।।
100496
Subscribe to:
Posts (Atom)