Friday, November 25, 2011

कौली कौली धूप


सुबह जगाने आ जाती है, मुस्काती, मुंहबोली धूप।
कभी आलता, कभी अल्पना, लगती कभी रंगोली धूप।।

धुंधों कोहरों के सब कपड़े, जाने कहां उतारे हैं ,
चुंधिआई आंखों के आगे, नहा रही है भोली धूप।।

अंजुरी में भरकर शैफाली, कभी मोंगरे, कभी गुलाब,
कमरे में खुश्बू फैलाती है फूलों की डोली धूप।।

अगहन की अल्हड़ गोरी है, है पुआल यह पूसों की,
सावन भादों में करती है हम से आँख मिचोली धूप।।

आंगन आंगन जलते चूल्हे, आंगन आंगन पकते रूप,
आंगन आंगन करती फिरती, खुलकर हंसी ठिठौली धूप।।

उसका चेहरा बहुत दिनों से देख नहीं पाया हूं मैं,
आज हथेली पर रख ली है मैंने कौली कौली धूप।।

खेतों की है लुक्का छुप्पी, पेड़ों की है धूम धड़ाम,
‘ज़ाहिद’ से ही झीना झपटी करती धौली धौली धूप।।




कौली कौली - नर्म नर्म, (खासकर ताज़ा कोंपलों,  फूलों सब्जियों या वनस्पतियों के लिए)
धौली धौली - उजली, सफेद सफ्फाक,


19-11-11

Saturday, November 12, 2011

लानत है ऐसे इश्क को


जिनका भरोसा इश्क पर है  और जो साबुतदिल है , उनसे मुआफ़ी चाहता हूं. 
हालात का मारा समझ कर इसे पढ़ियेगा।

बस करबटें बेचैनियां और बेबसी रही ।।
लानत है ऐसे इश्क को जिसमें खुशी नहीं।

ज्यौं ज्यौं हुई वो दूर तो सुलगा तमाम जिस्म,
शीशे की आंखें देनी थी पर आतशी नहीं।

हंसता नहीं हूं बेसबब, बेवक़्त, हरजगह,
दिल का कोई हुनर मिरा फ़रमाइशी नहीं।

बढ़ती गई जो धूप तो मैं भी सिमट गया,
भड़की तपन से चाहता रस्काकसी नहीं।

गुलज़ार आरज़ी है ये, गुल तोड़ना मना ,
तफ़रीहगाह शहर है रिहायसी नहीं।

क़ुदरत मुमानिअत का मदरसा नहीं जनाब!
अग़यारियों हदबंदियों में ज़िदगी नहीं ।

लत है मुहब्बतों की मुझे बेहिसाब दें ,
‘ज़ाहिद’ तो शौकिया हूं मैं पैदाइशी नहीं।
31.10.11