Monday, August 25, 2014

दो ग़ज़लें



1
अहसास की हवा

सदमे में घिर गया है बसर बोलता नहीं।
पाकर परिन्दा जैसे कि पर तौलता नहीं।

मुट्ठी में तो यादें लिए है रंग-रंग की,
जज्बात के पानी में मगर घोलता नहीं।

यूं जज्ब है जफ़्तोशऊरेहोश में गुरूर,
अहसास की हवा में शज़र डोलता नहीं।

पत्थर हुईं हैं संग-तराशों की धड़कनें,
सुनते हुए दिल दस्तकें दर खोलता नहीं।

‘ज़ाहिद’ तली में जल गए दुनिया के हौसले,
रग-रग में जमा ख़ूनेजिगर खौलता नहीं।

               24-25.08.14,

जज्ब - लय, घुले हुए, सोखे हुए,
जफ़्तोशऊरेहोश - चेतनता के संयम और संयमित व्यवहार,
शजर - पेड़,
संगतराश - पत्थर का शिल्पी,


2
दहशतज़दा हैं बाग के गुल

होने लगी है रात घनी जागते रहो।
सरहद में फिर है जंग ठनी जागते रहो।

जिनको नहीं है फिक्र ही अम्नोअवाम की
उनसे किसी की कब है बनी जागते रहो।

सुनते रहे हैं, आज मगर देख रहे हैं,
ज़र के लिए तलवार तनी जागते रहो।

नाहक़ है हक़ बदनाम, हैं नापाक इरादे,
ईमान का है कौन धनी? जागते रहो।

दहशतज़दा हैं बाग के गुल बागवान से,
हर सांस है शुबहे में सनी जागते रहो।

      25.08.14


अम्नोअवाम - शांति और प्रजाजन,
नाहक - व्यर्थ, बेकार, बिना वजह,
हक - अधिकार,
ईमान - सत्य, आंतरिक सत्य,
दहशतज़दा - भयभीत, दहशत में डूबा,
शुब्हे - अंदेशा, संदेह,



Wednesday, January 1, 2014

अच्छा लगता है।




लाख विदेशी ठौर ठिकाना, अच्छा लगता है।
पर चेहरा जाना पहजाना, अच्छा लगता है।।

रूठे हुए रुखों पर देखा छुपा हुआ गीलापन,
तभी रुलाकर उन्हें मनाना, अच्छा लगता है।।

महफिल में जब झूठे सच्चे क़िस्से उछल रहे हों,
किसी ख़ास का नाम छुपाना अच्छा लगता है।।

झूठ मूठ जब कोई बोले-‘हम सब समझ रहे हैं-’
ऐसे तुक्कों पर मुस्काना, अच्छा लगता है।।

धूप में सपनों के जब गीले कपड़े सूख रहे हों,
तन्हां छत पर उनका आना, अच्छा लगता है।।

गांव से जिसने क़स्बा जोड़ा, पहुंच शहर तक पाई,
उसी सड़क का मोड़ पुराना, अच्छा लगता है।।

छुपा-छुपी की मीठी खुश्बू अब तक ताज़ादम है,
यादों के बचपन में जाना, अच्छा लगता है।।

बजती हुई तालियों में भी अनुभव बोल रहे हैं,
तभी ताल पर कजरी गाना, अच्छा लगता है।।

बंद हथेली में ‘ज़ाहिद’ की, सदियां छुपी हुई हैं,
आज अकेला यही ख़ज़ाना अच्छा लगता है।।

                          बुधवार, 01.01.2014