Sunday, December 26, 2010

सूइयां घड़ियों की

ग़ज़ल की दुनिया में पांव पांव चलते मुझे यह नगीना मिला है ...इसे तस्बीह के मनकों की तरह इन दिनों फेर रहा हूं.हसरत है कि अदब के जौहरियो को भी अपनी हालत दिखाऊं..बस पेश है जनाब कृश्नकुमार नाज़ साहब की ग़ज़ल,





शाम का वक्त है शाख़ों को हिलाता क्यों है ?
तू थके मांदे परिन्दों को उड़ाता क्यों है ?

वक्त को कौन भला रोक सका है पगले ,
सूइयां घड़ियों की तू पीछे घुमाता क्यों है ?

स्वाद कैसा है पसीने का , ये मज़दूर से पूछ
छांव में बैठ के अंदाज लगाता क्यों है ?

मुझको सीने से लगाने में है तौहीन अगर
दोस्ती के लिए फिर हाथ बढ़ाता क्यों है ?

प्यार के रूप हैं सब , त्याग तपस्या पूजा
इनमें अंतर का कोई प्रश्न उठाता क्यों है ?

मुस्कुराना है मेरे होंठों की आदत में शुमार
इसका मतलब मेरे सुख दुख से लगाता क्यों है ?

देखना चैन से सोना न कभी होगा नसीब
ख़्वाब की तू कोई तस्वीर बनाता क्यों है ?
कृष्ण कुमार ‘नाज़’

Thursday, December 9, 2010

मुरली-चोर !

दोस्तों , डॉ.रा.रामकुमार जी की यह कहानी कई मानी में मुझे प्रभावित कर गई . अतः यह आनंद में आपके साथ बांटना चाहता हूं .

उम्मीद है आप भी मुतासिर हुए बिना न रह सकेगें। अपनी राय जरूर दें .






ब्रजकुमारी एकांतवास कर रहीं थीं। रात दिन राधामोहन के ध्यान में डूबे रहकर उपासना और उलाहना इन दो घनिष्ठ सहेलियों के साथ उनके दिन बीत रहे थे। भक्ति और प्रीति चिरयुवतियां निरन्तर उनकी सेवा में लगी रहती थीं।
एक दिन उन्हें ज्वर चढ़ा। यद्यपि ज्वर ,पीड़ा ,संताप ,कष्ट ,व्यवधान आदि आये दिन उनके अतिथि रहते थे। उनकी आवभगत में भी वे भक्ति और प्रीति के साथ यथोचित भजन और आरती प्रस्तुत करती थीं। आज भी वे नियमानुसार जाप और कीर्तन करने लगींे।
उनकी आरती और आत्र्तनाद के स्वर द्वारिकाधीश तक पहुंचे। उनके गुप्तचर अंतर्यामी सर्वत्र’ और अनंतकुमार ‘दिव्यदृष्टि’ उन्हें राधारानी के पलपल के समाचार दिया करते थे।
समाचार प्राप्त होते ही तत्काल वे उनके पास पहुंच गए। भक्ति और प्रीति ने दोनों के लिए एकांत की पृष्ठभूमि बना दी और गोपनीय निज सहायिका समाधि को वहां तैनात कर दिया। उपासना और उलाहना मुख्य अतिथि के स्वागत सत्कार में लग गईं।
‘‘ कैसी हो ?’’ आनंदकंद ने चिरपरिचित मुस्कान के साथ पूछा।
‘‘ जैसे तुम नहीं जानते ?’’ माधवप्रिया ने सदैव की तरह तुनककर कहा।
‘‘ पता चला है कि तुम्हें ज्वर है।’’ हंसकर माधव ने प्रिया के माथे पर हथेलियां रख दीं। राधिका ने आंखें बंद कर लीं। एक अपूर्व सुख ने उनकी आंखों की कोरों को भिंगा दिया। मनभावन ने उन्हें पोंछते हुए कहा: ‘‘ ज्वार और भाटे तो आते रहते हैं राधे ! परन्तु समुद्र अपना धैर्य और संयम नहीं खोता। उठती हुई उद्दण्ड लहरें किनारों को दूर तक गीला कर देती हैं...फिर हारकर वे समुद्र में जा समाती हैं।’’
‘‘बातें बनाना कोई तुमसे सीखे।’’ मुस्कुराकर राधा ने आंखें खोल दीं। फिर उलाहना देती हुई बोली:‘‘हरे हरे ! बस बन गया बतंगड़....थोड़ी सी समस्या आयी नहीं कि लगे मन बहलाने। पता नहीं कहां कहां के दृष्टांत खोज लाते हो।’’ उरंगना का उपालंभ सुनकर आराध्य हंसने लगे तो आराधना भी हंसने लगीं। कुछ पल इसी में बीत गए।
थोड़ी देर में राधिका फिर अन्यमनस्क (अनमनी) हो गईं। कुछ देर सन्नाटा खिंचा रहा। उनका मन बहलाने के लिए चित्तरंजन ने फिर एक बहाना खोज लिया:‘‘ राधे ! इच्छा हो रही है कि तुम्हें बांसुरी सुनाऊं। पर कैसे सुनाऊं ? वह बांसुरी तो किसी चोर ने कब की चुरा ली।’’
राधा ने आंखें तरेरकर कहा:‘‘ तुम लड़ाई करने आए हो या सान्त्वना देने ?’’
भोलेपन का स्वांग रचते हुए छलिया ने कहा:‘‘ मैंने तो कुछ कहा ही नहीं.. तुम पता नहीं क्या समझ बैठीं...?’’
रहने दो...जो तुम्हारे प्रपंच को न समझे ,उसे बताना ..मैं तो तुम्हारी नस नस पहचानती हूं.....बहुरुपिये कहीं के..’’ राधा के गौरांग कपोल गुलाबी होने लगे। आनंद लेते हुए आनंदवर्द्धन ने कहा:‘‘ अच्छा तो तुम सब जानती हो...?’’
‘‘हां..हां..सब जानती हूं...कोई पूछे तो ...’’ मानिनी ने दर्प से कहा।
‘‘ अच्छा ..तो बताओ...मेरी बांसुरी कहां है ?’’ त्रिभंगी ने तपाक् से पूछा।
राधा के चेहरे पर हंसी की एक लहर आई। उसने उसे तत्परता से छुपाकर कहा:‘‘ मुझे क्या पता....क्या मैं चुराई हुई वस्तुओं को सहेजती रहती हूं....कि मैं कोई चोरों की नायिका हूं...?’’
‘‘ क्या पता...तुम्हीं कह रही हो कि तुम्हें सब पता है....फिर किसी के बारे में कोई कुछ नहीं जानता...मैंने कोई गुप्तचर तो नहीं लगा रखे हैं....बस एक अनुमान से कहा कि कौन है जो मेरी प्राणप्रिय बांसुरी को हाथ लगा सकता है।’’ नटखट ने टेढ़ी मुसकान के साथ कहा तो अलहड़ ने भी कृत्रिम जिज्ञासा से कहा:‘‘ क्या अनुमान है तुम्हारा ...सुनूं तो ?’’
‘‘अब कौन छू सकता है उसे ....तुम्हारे अतिरिक्त...।’’ कृष्ण ने दृढ़ता से कहा।
‘‘मेरा नाम न लेना ...जाने कहां कहां जाते हो ..किस किसके साथ रहते हो...मैं क्या जानूं तुम्हारी घांस फूस की लकड़िया को......मेरे पास क्या कमी है ?’ फिर कनखियों से उसने मनमीत की ओर देखकर कहा ’‘ तुम्हें ही नहीं मिलता कुछ...कहीं इसका कुछ लिया ...कहीं उसका कुछ..’’
‘‘तुम्हारा क्या लिया ?’’ अबोध बनते हुए कृत्रिमता से कृष्ण ने कहा। राधा तमतमाकर कुछ कहना ही चाहती थीं कि कृष्ण हंसने लगे। उनका हाथ पकड़ककर बोले:‘‘ अब जाने दो प्रिये! बता भी दो ,कहां छुपाई है बांसुरी...कुछ नई तानें सुनाकर तुम्हारा ही मन बहलाना चाहता हूं...’’
बृषभानु लली ने मुस्कुराकर कहा:‘‘ तो एक शर्त है...प्रतिज्ञा करो कि अब तुम एक पल भी मेरे पास से कहीं और न जाओगे....।’’
‘‘ओहो......!!‘‘ रणछोड़ ने सिर हिलाकर कहा: ‘‘.इसे ही कहते हैं....न नौ मन तेल होगा ,न राधा नाचेगी.....प्रिये! तुम तो जानती ही हो कि केवल कहने को मैं द्वारिका का अधिपति हूं....इन्द्रप्रस्थ भी जाना होता है और मथुरा भी.....जहां से भी पुकार आती है और जहां दाऊ भेजते हैं ,जाना पड़ता है.....मैं तो अपना ही स्वामी नहीं हूं.....’’
सर्वेश ने अपने को सर्वाधीन होने के पक्ष में तर्क देकर बहलाने का प्रयास किया।
‘‘ बस बस .....‘‘ राधा ने कृष्ण का ध्यान उŸारदायित्वों की ओर से हटाने का उपक्रम किया:‘‘तुम्हारे अनंत अध्याय अब यहीं रहने दो ......मैं अर्जुन नहीं हूं और ज्ञानी भी नहीं हूं......और यह तान तो मुझे मत ही सुनाओ......सुनानी है तो बांसुरी सुनाओ...’’
‘‘ हां..हां ...लाओ ना ,कहां है बांसुरी ?’’ कृष्ण ने बड़ी तत्परता से अवसर दिये बिना कहा।
‘‘ हूं..उं...आ गए न अपने वास्तविक रूप पर...’’ राधा इठलाकर चिहुंकी और फिर मुकरकर बोली: ‘‘ जाओ , मुझे कुछ नहीं पता। बड़े आए छलिया छल करने......तुम्हे बांसुरी मिल जायेगी तो फिर ...तो...फिर तुम पलटकर नहीं आओगे...अभी बांसुरी के बहाने आ तो जाते हो..’’ उनकी पलकें गीली होने लगीं।
कृष्ण ने बात पलटकर कहा ‘‘ जाने दो...मैं अब छलिया तो हो ही गया हूं...पर सोच लो ... तुम्हें भी लोग बंसीचोर और मुरलीचोर कहेंगे..।’’
‘‘ मुझे कोई ऐसा नहीं कहेगा...तुम्हीं मुझे लांछित करने की चेष्टा कर रहे हो...है कोई जो प्रमाण के साथ कह सके कि मैंने तुम्हारी बंसेड़ी ली है ? तुम्हीं कह रहे हो बस....किसी ने सही कहा है ...चोरों को सब चोर ही दिखाई देते हैं...’’ राधा ने ठसक के साथ कहा।
‘‘ मैं चोर ?’’ कृष्ण ने अचंम्भित होने का स्वांग रचते हुए कहा ‘‘ अब यह नया लांछन दे रही हो तुम..पहले छलिया ...अब चोर। मुझे कौन कहता है चोर ?’’
‘‘ सब कहते हैं.....क्यों बचपन में मक्खन चुराया नहीं करते थे ? सारी ग्वालनें त्रस्त थीं तुमसे..पलक झपकते ऐसे माखन चुराते थे जैसे कोई किसी की आंखों से काजल चुराले.. ’’
‘‘ बालपन की बातें न करो...तब कहां बोध रहता है ?’’ कृष्ण मुस्कुराए।
‘‘ पढ़ने गए तो अपने सहपाठी सुदामा के चिउड़े किसने चुराए थे ? ’’ राधा आंखें नचाकर बोली।
‘‘ वह तो मित्रता थी....एक मित्र दूसरे मित्र की वस्तुएं ले लिया करता है..इसे चोरी नहीं कहते..बंधुत्व कहते हैं।’’कृष्ण की मुस्कुराहट गहरी हो रही थी।
‘‘ कपड़े चुराना तो चोरी है न ? जो तुम्हारे मित्र नहीं हैं,उनके वस्त्रों की चोरी तो की थी न तुमने ? कि वह भी झूठ है ?’’ राधा ने रहस्यात्मक स्वर में कहा।
‘‘किसके कपड़े चुराए थे मैंने ?’’ लीलाधर ने अनजान बनते हुए कहा।
‘‘अब मेरा मुंह न खुलवाओ...जैसे कुछ जानते ही नहीं....लाज नहीं आती तुम्हें ?’’ लाजवंती ने लज्जा के साथ कहा।
‘‘ अरे जब कुछ किया ही नहीं तो काहे की लाज ? तुम तो मनगढ़न्त बातें करने लगीं....न देना हो बांसुरी तो ना दो...लांछित तो न करो।’’ नटवर ने कृत्रिम रोष से कहा तो रासेश्वरी बिफरकर बोली ‘‘ झूठे कहीं के...नदी में नहाने गई गोप कन्याओं के कपड़े नहीं चुरा लिये थे तुमने.? सारा ब्रज इसका साक्षी है। जानबूझकर धर्मात्मा न बनो !’’ सांवले कृष्ण ने देखा कि हेमवर्णा माधवी उत्तेजना में लाल हो गयी थी।
यदुनन्दन हंसने लगे ‘‘ चुराए नहीं थे गोपांगने ! उनकी रक्षा की थी ,सहायता की थी। नदी के तट पर खुले में रखे वस्त्र सुरक्षित नहीं थे। उन वस्त्रों को बंदर तथा दूसरे पशु क्षतिग्रस्त कर सकते थे...गौएं चबा सकती थी......’’
राधा ललककर हाथ नचाती हुई बोली ‘‘ चुप रहो...अपने तर्क अपने पास रहने दो...ज्यादा लीपा पोती न करो...गौआंे की बात करते हो !....तो सुनो ...तुमको सब सम्मानपूर्वक गोपाल कहते हैं..पर गाय की चोरी का लांछन भी तो है तुम पर.....इसके उत्तर में है कोई नया कुतर्क तुम्हारे पास ?’’
‘‘ कुतर्क नहीं हैं शुभांगिनी ! एक ज्योतिषीय त्रुटी की बात है इसमें...तुम भी जानती हो..’’ राधावल्लभ ने लगभग ठहाका लगाकर कहा।
चिढ़कर राधा ने कहा ‘‘ झूठे ठहाके न लगाओ...तुम ज्योतिष को कब से मानने लगे...सारी मान्यताओं को झुठला देनेवाले क्रांतिकारी ! तुम किस ज्योतिष के फेर में मुझे बहका रहे हो ?’’
‘‘ बहका मैं नहीं रहा हूं ...ज्योतिष बहका रहा है ? क्या तुम नहीं जानती कि मैंने भादों की चौथ का चांद देख लिया था तो तुमने कहा था....‘ शिव! शिव !! अशुभ हो गया ...तुम पर चोरी का आरोप लग सकता है।’ घटना तो तुम्हें याद है न ......’’
राधा ने मुंह बनाकर कहा ‘‘ रहने दो , मुझे कुछ नहीं याद ..’’
मनमोहन ने इस पर फिर ठहाका लगाया और बोले ‘‘ याद तो है मानिनी , नहीं मानती तो बता देता हूं कि क्या हुआ .....कि एक बार कदंब के नीचे मैं सो रहा था...तुम्हारी ही प्रतीक्षा में नींद लग गई थी। कुछ चोर गाय चुराकर भाग रहे थे....गोस्वामियों ने उनका पीछा किया...वे गाय छोड़कर भाग गए..गाय भटककर मेरे पास आईं और पेड़ की छांह में जुगाली करने लगीं...गोस्वामी आए ..मैं कंबल औढ़े पड़ा था ...वे पहचान न पाए... उन्होंने मुझे चोर समझ लिया...सुन रही हो गोपाल को चोर समझ लिया !! बस , हल्ला मच गया...बाद में तो सत्य सामने आ गया...पर तुमने और तुम्हारी सहेलियों ने छेड़ने के लिए अब भी मुझ पर यह छाप धरी हुई है.....किन्तु ,प्रिये! .......’’ कृष्ण राधा के थोड़ा पास आकर बोले ‘‘ लांछनों का टोकरा समाप्त हो गया हो ,तो चित्त को शांति पहुंचे ,ऐसी बातें करें ?’’
‘‘ कौन से चित्त की शांति की बातें कर रहे हो चितचोर!’’ राधा की आंखें डबडबाने लगीं‘‘ चित्त होता तो शांति होती...मन है तो वह वश में नहीं है....वह भी तुम्हारा ही गुप्तचर है...आंखें भी बस तुम्हारी अनुचरी हैं...उन आंखों की नींद भी तुमने चुरा लीं हैं। रात दिन जागकर जैसे वे मुझपर ही पहरा देती रहती हैं। तुम कहते हो , चित्त की शांति की बातें करें ’...कैसे करें ?’’ कहते कहते राधा का स्वर रुंध गया...आंखों से आंसू टपकने लगे। चितचोर ने आगे बढ़कर प्रेयसी के कपोलों से बहने वाले आंसू को तर्जनी से समेटते हुए कहा: ‘‘ ओह! ये नीलमणि से अनमोल अश्रुकण !!...इन्हें व्यर्थ न बहाओ...अभी तो चौथ के चांद का एक और आरोप मुझपर शेष है....वही नीलमणि की चोरी का ..जिसके कारण जामवंत से मेरा द्वंद्व हुआ था...। फिर चितचोर और निद्रा की प्रसिद्ध चोरनी तो तुम भी हो.... हमारे ये दो अपराध तो समान हैं...हैं न ?’’
जगन्नाथ कुछ और कहते कि राधा ने बीच में टोक दिया -’‘ बस ,अब चुप भी करो।
चितचोर की चितचोरनी रोने लगीं। गौरांगी ने श्यामल की काली कंबली में अपना स्वर्णाभ मुख छुपा लिया। वेणुमाधव भी जैसे पराभूत हो चुके थे। वे अपने अंदर उमड़ते ज्वार को भरसक रोकते हुए धीरे धीरे अपनी उर-बेल के केशों को सहलाते रह गए।

डॉ. आर.रामकुमार,

Thursday, November 11, 2010

मुहब्बत के बूटे

दोस्तों आदाब! बहुत देर से आने की ग़ुस्ताख़ी मुआफ़ हो..कुछ है बात जो कभी ग़ज़ल में शाया होगी..इस नाच़ीज़ सी ग़ज़ल से शायद कुद संजीदाहाल खुले..


कभी बेवजह मुस्कुराकर तो देखो ।
खुशी के ख़ज़ाने लुटाकर तो देखो ।।

हरी रेशमी सांस की सरजमीं में ,
मुहब्बत के बूटे लगाकर तो देखो ।।

मसीहे मिलेंगे तुम्हें दोस्ती के ,
रकीबों को घर में बुलाकर तो देखो ।।

जवां ज़िन्दगी के तराने मिलेंगे ,
ख़्वाबों की तितली उड़ाकर तो देखो ।।

हमीं हैं , हमीं हैं , हमीं हम हमेशा ,
किताबों से गर्दे हटाकर तो देखा ।।

तुनकती हुई हर खुशी को खुशी से ,
ज़रा खींचकर गुदगुदाकर तो देखो ।।

बनेगी नयी लय सजेगा नया सुर ,
कि‘ज़ाहिद’ की धुन गुनगुनाकर तो देखो ।।
20.10.2010
कुछ दोस्तों के नये नये तकाज़ों के साथ ...कुछ और बातें ...पेश हैं

Sunday, October 10, 2010

चल किसी मोड़ पर चराग़ रखें

10.10.10. की शुभकामनाओं के साथ...


हक़ीम हो के जो दवा मांगे
गो कि तूफान भी हवा मांगे ।/1/

दिल मेरा चांद सितारे मांगे
मांग बेज़ा सही ,रवा मांगे ।/2/

रात की नीमजान खामोशी
गूंगे आकाश से सबा मांगे ।/3/

मेरी तन्हाइयों की परछाईं-
मेरी मायूसियां ,वबा मांगे ।/4/

चल किसी मोड़ पर चराग़ रखें
फ़िक्र में ख्वाहिशें कबा मांगे ।/5/

दुखती रग पर न कोई हाथ रखे
यक़ीन टूटे हैं ,ख़बा मांगे ।/6/

आज ‘ज़ाहिद’ से क्यों उमीदेवफ़ा
भूली बिसरी हुई नवा मांगे ? ।/7/

01.08.10

शब्दावली
बेज़ा = अपूरणीय , अनुचित ,
रवा = बजा , उचित , ठीक
सबा = सुबह की सुगंधित हवा, प्रातःसमीर ,
नीमजान = अर्द्धप्राण , अधमरी ,
वबा = महामारी ,क़यामत ,
कबा = चोगा , अंगरखा ,
ख़ौफ़ = भय , डर , अंदेशे
खबा = छुपाना ,गोपनीयता, एकांत
नवा = आवाज़, सदा ,

Sunday, September 26, 2010

रंगोफ़नोसुख़न के भी जागीरदार हैं

होंगे गुनाहगार तो मर जाएंगे ज़ाहिद ।
वर्ना हज़ार बार सर उठाएंगे ज़ाहिद ।।

सौ बार या हज़ार या लाखों करोड़ बार
हों आजमाइशें तो न घबराएंगे ज़ाहिद ।।

लगती है जानलेवा कलेजे में हरेक चोट
गो जानती है सख़्त हैं बच जाएंगे ज़ाहिद।।

मकतब की ज़िन्दगी के लिए वर्क़ कै़द हैं
ना जाने कब मिलेंगे या मिलवाएंगे ज़ाहिद।।

गूंगी ग़ज़ल को बारहा कहते हैं मुक़र्रर
अशआर के शऊर बिखर जाएंगे ज़ाहिद।।

अब भी दुआ सलाम में शामिल है सियासत
क्या अब यहां से साफ़ निकल पाएंगे ज़ाहिद।।

रंगोफ़नोसुख़न के भी जागीरदार हैं
इस गांव में आने से भी कतराएंगे ज़ाहिद।।
28.04.10/17.05.10


आजमाइशें ः कठिन परीक्षाएं
मकतब ः किताबघर, शाला , वाचनालय ,
वर्क़ ः पन्ने ,
बारहा ः बार बार ,
मुक़र्रर ः पुनः , एक बार फिर ,
अशआर ः शेर का बहुवचन ,
शऊर ः शिष्टाचार , लिहाज ,
सियासत ः राजनीति , बनावट , झूठ
रंगोफ़नोसुख़न ः चित्ररंगशाला ,कला क्षेत्र ,साहित्य-सृजन
जागीरदार ः क्षेत्र विषेश का अधिपति , मालिक ,

Saturday, August 28, 2010

हुनर कुछ भी नहीं है बस ज़रा औज़ारबाज़ी है,

परिन्दे हौसलों के आसमां को नाप आते हैं।
जहां तूफ़ान ने तोड़ा वहीं पर घर बनाते हैं।।

गो गिद्धों से भरी है खौफ़ की बेदर्द ये दुनिया,
हंसी होंठों पै लेकर हम जहां को मुंह चिढ़ाते हैं।।

उन्हें हर बात पर दुनिया के मर मिटने की हसरत है,
नज़र जब इश्क़ की पड़ती है तो नज़रें चुराते हैं।।

मुझे वो चाहते हैं बस ज़रा कहने से डरते हैं ,
मुहब्बत तोड़ती है दिल , सहमकर दिल बचाते हैं।

हुनर कुछ भी नहीं है बस ज़रा औज़ारबाज़ी है,
तुम्हारे ख्वाब के सोने से हम गहने बनाते हैं।।

यक़ीन है दोस्ती पर ,पर जरा दुनिया से डरते हैं
ये दुनिया दोस्तों की है , मेरे दुश्मन बताते हैं।

न फूलों के हसीं गुलशन ,ना बागीचे ,न दहकां हैं ,
पड़े बंजर में ‘ज़ाहिद’ मौज़ के कौवे उड़ाते हैं।।



27.07.10, 5810, 5.8.10

Friday, July 23, 2010

दो ग़ज़ल

बारिश की बारदात।

कुछ भी नया नहीं है, वहीं दिन है, वही रात !
उनसे कहूं तो कैसे कहूं कोई नयी बात !!

पूनम की रात , चांद के माथे पै अंधेरा ,
मुझको लगा अदा से हुई जुल्फों की बरसात ।

बादल की चादरों से झांकती है चांदनी ,
शायद ग़ज़ल है आसमां की गोद में नवजात!

सौ मील की रफ़्तार थी तूफ़ानेजोश में ,
घर को उजाड़कर गई , बारिश की बारदात।

‘ज़ाहिद’ लगे उम्मीद रुदाली है आजकल ,
खुशियों में अश्क बनके टपक पड़ते हैं जज्बात ।

27.6.10

मैं तो दरिया हूं नये ख्वाब का ,बहने आया ।।

‘क्यों है खाली तेरा घर’, कोई ना कहने आया ।
तू गया छोड़ के तो कोई ना रहने आया ।।

मैं कभी इश्क़ की फ़रमाइशें नहीं करता,
मैं तो दरिया हूं नये ख्वाब का , बहने आया ।।

‘हां’ के आईने में परदे हैं सौ बहानों के ,
कोई भी लफ़्ज़ कहां सादगी पहने आया ।?

गुम हुई हंसती खिलखिलाती हुई ताजा़ हवा ,
वक़्त सब शौक के उतारकर गहने आया ।।

मेरे आंसू या पसीने को न पोंछो ‘ज़ाहिद’,
जो भी हिस्से में मिरे आए मैं सहने आया ।।

30.6.10


इसरार: इस बार दो ग़ज़ल एक साथ पढ़ने की तकलीफ़ आपको होगी। पर क्या करूं दोनों का एक साथ देना मेरी मज़बूरी है।
पहली ग़ज़ल तब बनी जब इस तरफ़ तबाही मचाता हुआ तूफान आया और बारिश भी। जानोमाल के नुकसान जो हुए सो हुए ही , तीन दिन तक बिजली भी न आ सकी। एक दिन की बारिश से इतनी ठंडक भी नहीं पड़ी थी कि ऊमस न रहे। इसी बीच मेरे अपने को वापस लौटना भी था । दूसरी ग़ज़ल तब अपने आप हो गई। मुलाहिज़ा फरमाएं और इसला करें।

Thursday, July 1, 2010

काग़ज़ों में शोर है फ़िरदौस का

दोस्तों! भयानक तपती गर्मी का यह गर्म अहसास अगर मुमकिन हो तो बारिश की फुहारों के साथ पढ़ें...



फ़िल्म से यह मेल क्यों खाती नहीं ?
ज़िन्दगी रोती हुई गाती नहीं।

आग के आते थपेड़े हैं सदा
पंखों से ठंडी हवा आती नहीं।

रेंगती है जौंक-सी मरियल नदी
अब किसी अल्हड़ सी बलखाती नहीं।

काग़ज़ों में शोर है फ़िरदौस का
बुर्क़े हैं , सूरत नज़र आती नहीं।

कहते हैं कि उस तरफ़ हैं मंजिलें,
जिस तरफ़ कोई सड़क जाती नहीं।

जख़्म ताक़तभर दबाती है सफ़ा
दुखती रग आहिस्ता सहलाती नहीं।

बेसबब ‘ज़ाहिद’ खड़े हो राह में
अब सबा कलसे इधर लाती नहीं।

16.05.10 फ़िरदौस-स्वर्ग/ सफ़ा- इलाज़/सबा- सुबह की ठंडी हवा

Saturday, June 5, 2010

इस नदी की सादगी मत देखिए

कामयाबी सिफ़्र भी , चहार भी।
ज़िन्दगी में जीत भी है , हार भी।।

सैकड़ों फिसले ,गिरे हज़ार भी,
रास्ते दुश्वार भी , हमबार भी।।

मत किसी मुरझाए पौधे को उखाड़
आएगी उस पर कभी बहार भी।।

उम्र जंगल से गुज़रती भेड़ है,
ताक में हैं शेर भी , सियार भी।।

हौसले हांकें ही हैं , हांफे हुए,
जान सहमी भी है , पर , तैयार भी

इस नदी की सादगी मत देखिए
इसमें हैं चढ़ाव भी , उतार भी।।

मुफ़लिसी ‘ज़ाहिद’ अमीरी का ही नाम
क़ैदख़ाने भी है , गर , हिसार भी।।
300510


सिफ़्र-शून्य ; चहार -चार ,चार गुनी ;
चौगुनी ;
दुश्वार- कठिन , मुश्किल ,दुर्गम ;
हमबार -समतल , सुगम ;
हांकें -जानवरों को पकड़ने के लिए आदमियों का शोर ;
हिसार - क़िला ,दुर्ग ;

Monday, May 24, 2010

ज़िन्दगी के भवन में चढ़ते हुए

कैसे कैसे दौर से गुज़रा हूं मैं
भरतनाट्यम्, कुचिपुड़ी, मुजरा हूं मैं।

ज़िन्दगी के भवन में चढ़ते हुए
मौत की सौ सीढ़ियां उतरा हूं मैं।

थी मिली सूरत भली , सीरत भली
गदिर्शों के दांत का कुतरा हूं मैं।

कुछ गली गंदी मिलीं, कुछ पाक साफ़
पैरहन मत देखिए सुतरा हूं मैं।

पल फले , फसलें पकीं ,‘ज़ाहिद’ मगर
खेत में झूठा खड़ा पुतरा हूं मैं।

दि. 08.04.10

सुतरा - पवित्र , स्वच्छ ,
पुतरा - पुतला , बिजूका ,

Saturday, May 8, 2010

जिन्दगी खटनी

कुछ दोस्तों को नयी पोस्ट का बेसब्री से इंतज़ार था इसलिए इसे सब्र से पढ़ें



सिल-बटे पर है हिना-सी हर खुशी बटनी।
उम्र मेरी जान ! वर्ना यूं नहीं कटनी ।।

जिन्दगी भर सब्र के पत्थर रखो दिल में,
बदगुमां ये खाइयां ऐसे नहीं पटनी।।

यह दिया संतोष का यूं ही नहीं जलता ,
रेशा रेशा सांस से बत्ती पड़ी अटनी।।

है खिंची रस्सी हवा में आजमाइश की ,
हाथ खोले चल रही है वक्त की नटनी ।।

वह जो परदे से लगी चिपकी खड़ी दिखती ,
आस की ज़िद से भरी है , वह नहीं हटनी।।

घर में सबके मुंह में वह पानी बनी फिरती ,
चटपटी ,तीखी ,सलोनी आम की चटनी।।

आंख भर उसको कभी ‘ज़ाहिद’ नहीं देखा ,
एक पल ठहरी नहीं यह जिन्दगी खटनी।।
1 मई 2010

हिना: मेंहदी ,/ बटनी: बांटनी ,
पटनी: पाट दी जानी ,/ बदगुमां-मिथ्याभिमान ,
अटनी: आटना ,अटना, धागे को गुंथना,
खटनी: खटनेवाली,खटना शब्द से बनी संज्ञा,
रेशा रेशा >रेशः रेशः = एक एक तार,फाइबर

Wednesday, April 28, 2010

चाह हो तो मैं हिमालय से पिघलकर आउंगा ।।

ख्वाब तुम देखो कि मैं नभ पर चमककर छाउंगा ।।
प्यार की बदली बनूंगा , आंख में भर जाउंगा ।।

इतने स्थापित हो तुम कि चाहकर ना हिल सको ,
मैं हवा हूं सांस भी खींचो तो खिंचकर आउंगा ।।

मैं तली में याद के टुकड़े की मानिंद हूं पड़ा ,
तुम खंगालोगे तो मैं उठकर सतह पर आउंगा ।।

इम्तिहां की राह में दीवार ना पैदा करो ,
चाह हो तो मैं हिमालय से पिघलकर आउंगा ।।

हज़ से लौटा हूं अभी ‘जाहिद’ अभी प्याला न दो ,
चार छः दिन ज़्यादा से ज़्यादा सबर कर पाउंगा ।।

4.3.10/11.03.10

Tuesday, April 6, 2010

शख्स की तलाश

ऐलानेख़ासोआम बहुत खास दोस्तों !!
कोई नहीं फटकता आसपास दोस्तों !!

अफ़सर ,नुमाइंदे ,इज़ारेदार ,तनखि़ये ,
सबके अलग अलग हैं यां लिबास दोस्तों !!

दिल के नहीं दिमाग़ के रिश्तें हैं आजकल ,
सबकी टिकी है फ़ायदों में सांस दोस्तों !!

कानून क़त्लगाह है, इंसाफ़ है चारा,
संसद का तामझाम है बकवास दोस्तों !!

जिस शख्स की तलाश में ‘ज़ाहिद’ है दरबदर ,
उसको नहीं इस बात का अहसास दोस्तों !!

17.11.09/100310/11.03.10

ऐलानेख़ासोआम: विशेष और साधारणों के लिए घोषणा
कत्लगाह: बूचड़खाना ,
चारा: लोभ ,प्रलोभन ,

Saturday, March 13, 2010

काश मैं बहती हुई धारा से गागर खींचता ।।

कितनी कितनी दूर की नदियों को सागर खींचता ।।
रूप ,धन ,वैभव नहीं ,सबको ही आदर खींचता ।।

लफ़्ज़ मेरे हलक़ से यूं शायरी को खींचते ,
जैसे चारा मछली को पानी के बाहर खींचता ।।

इस कदर है अपने ढंकने की ज़माने को फिक़र ,
नींद में भी ,जो है अपना , वो ही चादर खींचता।।

हर कुएं सूने दिखे यां हर नदी सूखी मिली ,
काश मैं बहती हुई धारा से गागर खींचता ।।

डूबते हैं आंख में अरमान इस उम्मीद से ,
कोई तो ‘ज़ाहिद’ मिरे बाजू़ को आकर खींचता ।।

04.03.10/11.03.10/

Tuesday, March 2, 2010

साझे में नफ़रत

मैं जिन आंखों में मिल जाती मुहब्बत बस पिया करता।
कहां रंजेजफ़ा , फ़िक्रेतग़ाफुल मैं किया करता ।।

जहालत ही जहालत है , ज़हानत में जमाने की ,
मैं सदमे सह लिया करता , मैं आंसू पी लिया करता।।

नहीं रहबर हैं राहों में , रिवाजेरहज़नी हर सू ,
सभी धकियाते चलते हैं , मैं फिर भी चल लिया करता ।।

यहां साझे में नफ़रत होती है तो ख़ूब होती है।
कहीं भी प्यार साझे में कहां कोई किया करता।।

किसी से क्या करूं शिकवा ,किसे चिन्ता किसी की है ,
कभी ‘ज़ाहिद’ ज़ुबां खुलती तो उसको सी लिया करता ।।
190210

रंजेजफ़ा - जफ़ा का रंज, सितम का दुख।
फ़िक्रेतग़ाफुल - उपेक्षा की चिंता, वेतवव्जुही की परवाह।
जहालत - मूर्खता ,बेवकूफ़ी।
ज़हानत - ज़हन की तेज़ी, बौद्धिकता।
रहबर /राहबर- पथप्रदर्शक, अगुआ।
रिवाजेरहज़नी - रास्ते में लूट लेने का रिवाज।
हर सू - हर तरफ।

Monday, February 22, 2010

जादुई पत्थर

मेरा दुश्मन बहुत चालाक ,हंसकर वार करता है।।
हमें जिस बात का डर है उसे इज़हार करता है।।

किसी का मैं नहीं हूं ,हो नहीं सकता , बताता है,
मैं जिनके दिल में हूं ,उनमें खड़ी दीवार करता है।।

मुसलसल ज़िन्दगी में क्यों लगी ठोकर बताता हूं ,
जमाना जादुई पत्थर से पथ तैयार करता है।।

हथेली पर हिना ,होंठों पै लाली , गाल पर सुर्ख़ी ,
शहर सारा कसाई की तरह श्रृंगार करता है।।

समझ आती नहीं है इश्क़ की तासीर कैसी है ,
कहीं सेहत बनाता है ,कहीं बीमार करता है।।


उसे पागल कहा जाता ,जो हंसता और रोता है
उसे दीवाना कहते हैं ,जो चुप दीदार करता है।।

यहां इंकार भी इक़रार है , इक़रार शुब्हा है ,
सज़ा ‘ज़ाहिद’ को होती है ,मज़ा संसार करता है।।

17.02.10

Tuesday, February 16, 2010

रास्ते मरमरी बांहें नहीं होते यारों !

जख्म जो दिल के छुपाने हों , मुस्कुराते चलो।
घोर बंजर में , बियाबां में लहलहाते चलो ।।

उम्र नाजुक है मगर दूर तलक जाएगी ,
बोझ कंधे बदल बदलके बस उठाते चलो ।।

रास्ते मरमरी बांहें नहीं होते यारों !
सम्हल सम्हल के चलो ,संतुलन बनाते चलो ।।

क़दम क़दम में यहां लोग-बाग भिड़ जाते ,
ये हैं अंधों का शहर लाठी ठकठकाते चलो ।।

मौत मंजर नहीं होती है, न सकते में रहो ,
कब्र के पास से गुजरो तो गुनगुनाते चलो ।।

शाख अच्छी नहीं लगती जो न झूमे झूले ,
तुम परिन्दों की तरह उड़ते चहचहाते चलो।।

क्यों रहें ख़ौफ़ के दरवाज़ों के पीछे ‘ज़ाहिद’,
हौसलों ! ज़ंग लगी कुंडी खड़खड़ाते चलो ।।

× कुमार ज़ाहिद ,मंगल ,16.02.10