Saturday, October 17, 2009

मुहब्बत का वज़न मिलता नहीं

क्या पता अब बात क्या है मन से मन मिलता नहीं
भीड़ जब से बढ़ गई है अपनापन मिलता नहीं

बोझ है कितना दिलों पर सुस्त है जीने का ढंग
नाम बांकेलाल है पर बांकपन मिलता नहीं

चाहता हूं बांट दूं सारा जो धन है प्यार का
प्यार जिसको चाहिए ऐसा स्वजन मिलता नहीं

जरजमीनोजार के है सब दीवानावार यार
आदमी की चाह का दीवानापन मिलता नहीं

अब भी सुनते हैं पुकारो तो मगर बेमन से क्यों
क्या पुकारों में मुहब्बत का वज़न मिलता नहीं

हम जमाने से अलग हो दूर जाकर क्यों चलें
साथ चलने में कभी बेगानापन मिलता नहीं

हाथ ‘ज़ाहिद’ ने बढ़ाया है तो बढ़कर थाम लो
वर्ना पछताओगे मिलनेवाला जन मिलता नहीं

1 comment:

  1. चाहता हूं बांट दूं सारा जो धन है प्यार का
    प्यार जिसको चाहिए ऐसा स्वजन मिलता नहीं

    अब भी सुनते हैं पुकारो तो मगर बेमन से क्यों
    क्या पुकारों में मुहब्बत का वज़न मिलता नहीं

    हाथ ‘ज़ाहिद’ ने बढ़ाया है तो बढ़कर थाम लो
    वर्ना पछताओगे मिलनेवाला जन मिलता नहीं

    bahut gahrai hai apke andaz aur bayan mein.mubaraq.

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