कैसे कैसे दौर से गुज़रा हूं मैं
भरतनाट्यम्, कुचिपुड़ी, मुजरा हूं मैं।
ज़िन्दगी के भवन में चढ़ते हुए
मौत की सौ सीढ़ियां उतरा हूं मैं।
थी मिली सूरत भली , सीरत भली
गदिर्शों के दांत का कुतरा हूं मैं।
कुछ गली गंदी मिलीं, कुछ पाक साफ़
पैरहन मत देखिए सुतरा हूं मैं।
पल फले , फसलें पकीं ,‘ज़ाहिद’ मगर
खेत में झूठा खड़ा पुतरा हूं मैं।
दि. 08.04.10
सुतरा - पवित्र , स्वच्छ ,
पुतरा - पुतला , बिजूका ,
Monday, May 24, 2010
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कैसे कैसे दौर से गुज़रा हूं मैं
ReplyDeleteभरतनाट्यम्, कुचिपुड़ी, मुजरा हूं मैं।
ज़िन्दगी के भवन में चढ़ते हुए
मौत की सौ सीढ़ियां उतरा हूं मैं।
अत्यंत प्रभावशाली चित्रण...स्वागतम्
एक शानदार ग़ज़ल से रु-बी-रु हुआ आज,
ReplyDeleteज़िन्दगी के भवन में चढ़ते हुए
मौत की सौ सीढ़ियां उतरा हूं मैं।
पल फले , फसलें पकीं ,‘ज़ाहिद’ मगर
खेत में झूठा खड़ा पुतरा हूं मैं।
... वाह भाई
हमेशा की तरह बेहतरीन,लाजवाब वाह!!!!वाह!!!! वाह!!!
ReplyDeleteadhbhut likhte hain aap
ReplyDeleteज़िन्दगी के भवन में चढ़ते हुए
मौत की सौ सीढ़ियां उतरा हूं मैं।
कुमार कौतुहल जी,
ReplyDeleteसुलभ सतरंगी जी,
रचना दीक्षित जी,
श्रद्धा जैन जी,
आपका शुक्रगुजार हूं कि आपको ग़ज़ल पसंद आई
इसी तरह हौसला दें और
कहीं कुछ ऐसा लगता है कि कुछ और बेहतर हो सकता है तो कृपया मशविरा भी ज़रूर दें
थी मिली सूरत भली , सीरत भली
ReplyDeleteगदिर्शों के दांत का कुतरा हूं मैं।
*****यह शेर तो बहुत खूब कहा है आप ने!
वक्त की मार से सीरत सूरत सभी पर कम/ज्यादा असर पड़ता ही है.
-ज़िन्दगी के भवन में चढ़ते हुए
मौत की सौ सीढ़ियां उतरा हूं मैं।
वाह!वाह!!वाह!!!यह शेर बहुत उम्दा लगा.
-कशमकश और उलझने न जाने कितनी बार मारती हैं इंसान को.
बहुत अच्छी लगी गज़ल !
zahid hi is baar phir baat dil tak gayi..yahi to pasand hai meri!
ReplyDeleteथी मिली सूरत भली , सीरत भली
ReplyDeleteगदिर्शों के दांत का कुतरा हूं मैं।
लग तो रहा है
कि
बहुत कुछ कह पाने में
कामयाब रहे हैं आप....
शेर क़ीमती है .
अल्पना , पारुल और मुफलिस जी,
ReplyDeleteआप सबके प्रोत्साहन का आभार..
कैसे कैसे दौर से गुज़रा हूं मैं
ReplyDeleteभरतनाट्यम्, कुचिपुड़ी, मुजरा हूं मैं।
बहुत सुन्दर परिकल्पना है ज़ाहिद साहब!
ज़िन्दगी किस तरह जद्दोजहद के बीच से अपना रास्ता बनाती है, उस संपूर्ण द्वंद्व का चित्रण करती पंक्तियां।
एक नया प्रयोग भी।
यह साम्य और बिंब या रूपक आपने बिल्कुल सही लिया है कि ...
भरतनाट्यम् कुचिपुड़ी मुजरा हूं मैं।
इस तरह के प्रयोग कम से कम पहली बार देख रहा हूं और अभिभूत हूं...
तुलसी दास जी ने इसे ही इस प्रकार कहा है....
उमा दारु मरकट की नाई
सबहिं नचावत राम गुंसांई।
दारु जोशित भी कहीं पाठ मिलता है।
दारु-मरकट और दारु मरकट भी समझा जा सकता है। ?
अर्थ और आशय सिर्फ इतना है कि पेड़ों ओर बंदरों की भांति राम गोसाई सब प्राणिमात्र को नचाते है।
हां, हम सब ‘दौर’ यानी वक्त के आगे मरकट या बंदर ही हैं। उसके हिलाए पत्ता भी नहीं हिलता ..पत्ता यानी दारु अर्थात पेड़ का एक लघु अवयव..
सुन्दर संयोजन
और फिर इसी संपूर्ण संघर्ष को जसे ये पंक्तियां पूर्णता प्रदान करती है..
ज़िन्दगी के भवन में चढ़ते हुए
मौत की सौ सीढ़ियां उतरा हूं मैं।
ये पंक्तियां जैसे जिन्दगी को अपने असली स्थान पर लाकर खड़ा कर देती हैं..
पल फले , फसलें पकीं ,‘ज़ाहिद’ मगर
खेत में झूठा खड़ा पुतरा हूं मैं।
बधाई! बधाई !!शतशः बधाइयां!!!
वाह!वाह!!वाह!!!यह शेर बहुत उम्दा लगा.
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