Wednesday, June 1, 2011

दो मुक्तक

(दो मु-कताअत)

एक

मुझे लिखना नहीं आता , मुझे कोई लिखाता है।
मैं अंधा हूं , मुझे तो रास्ता कोई दिखाता है।
मुझे अब सूझता कुछ भी नहीं , न कुछ समझ आता ,
जो धक्का मारकर चलता , वही चलना सिखाता है।।
16.05.11
दो

किसी जंगल में जब भी हिरन का छौना निकलता है।
वहीं धरती में जैसे स्वर्ग का कोना निकलता है।
नहीं यह घास, गेहूं ,फूल ,फल या धान ही देती ,
कहीं हीरे निकलते हैं , कहीं सोना निकलता है।।
16.05.11

6 comments:

  1. कहीं हीरे निकलते हैं , कहीं सोना निकलता है।
    दोनों ही मुक्तक बेहतरीन हैं !

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  2. बेहद खूबसूरत मुक्तक हैं..बधाई स्वीकरें
    नीरज

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  3. दोनों मुक्तक बेहतरीन और शानदार. बधाई.

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  4. नहीं यह घास, गेहूं ,फूल ,फल या धान ही देती ,
    कहीं हीरे निकलते हैं , कहीं सोना निकलता है।।

    जनाब कुमार साहब ! आदाब।

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  5. मुझे लिखना नहीं आता , मुझे कोई लिखाता है।
    मैं अंधा हूं , मुझे तो रास्ता कोई दिखाता है।
    मुझे अब सूझता कुछ भी नहीं , न कुछ समझ आता ,
    जो धक्का मारकर चलता , वही चलना सिखाता है।।

    kya baat hai.....
    bohot khoob.......

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