बहुत दिनों जब कुछ ना बोली सीली सी तनहाई।
दबे हुए कुछ सपने खोले उनको धूप दिखाई।।
कुछ खट्टे पल शिकवों की फफूंद खाए थे,
हाथ फेरकर उनका पोंछा फिर कुछ रगड़ लगाई।
कुछ सतरें अब भी आंसू की गंध लिए थीं,
मिटे हुए कुछ हर्फ़ो से यादें रिस आईं।
घायल सा इक ख़त जमीन पर फिसल जा गिरा,
तड़प रही थी उसमें, उसकी, सहमी सी रुसवाई।
टूटे हाथ लगाते जैसे गलत फैसले ,
उन वर्क़ों का क्या होना था ‘ज़ाहिद’ आग लगाई।
01.12.11,
बहुत दिनों जब कुछ ना बोली सीली सी तनहाई।
ReplyDeleteदबे हुए कुछ सपने खोले उनको धूप दिखाई।।
Bahut,bahut sundar!
bahut khoobsoorat abhivyakti hai ...
ReplyDeleteबहुत दिनों जब कुछ ना बोली सीली सी तनहाई।
ReplyDeleteदबे हुए कुछ सपने खोले उनको धूप दिखाई।।
बेहतरीन पंक्तियाँ
घायल सा इक ख़त जमीन पर फिसल जा गिरा,
ReplyDeleteतड़प रही थी उसमें, उसकी, सहमी सी रुसवाई।
...बहुत खूब! बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...
घायल सा इक ख़त जमीन पर फिसल जा गिरा,
ReplyDeleteतड़प रही थी उसमें, उसकी, सहमी सी रुसवाई।
बेहतरीन एहसास...
क्षमाजी!
ReplyDeleteहमेशा की तरह आपकी हौसलाअफ़जाई का
आभार
शारदा जी! बहुत बहुत शुक्रिया
ReplyDeleteमोनिका जी! बहुत दिनों बाद आपका आना हुआ
ReplyDeleteआभार
बहुत बहुत आभार शर्माजी!
ReplyDeleteनिगम जी शुक्रिया
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गज़ल....
ReplyDeleteसचमुच एक एक अलफ़ाज़ बेहतरीन...
मुबारकबाद कबूल करें...
शुक्रिया vidya ji.
ReplyDeleteपुष्प कमल ने कहा-‘‘ कितना सुन्दर लिखते हें आप, कितना सुन्दर सोचते हैं..मैं बहुत ही ज्यादा प्रभावित हूं..’’
ReplyDeleteदिनांक 29.12.11
सुन्दर अभिव्यक्ति,
ReplyDeleteनये वर्ष की हृार्दिक शुभकामनायें।
beautiful. welcome to my blog www.utkarsh-meyar.blogspot.com
ReplyDeletebehtareen sir.. aapki gazalen mujhe bar bar is duniya me lautane ko majbur kar deti hain...
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